Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
Publisher: Kantilal Manilal Zaveri

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Page 797
________________ संवेगरंगसाला जल-उपसर्गे साधु-अनुचितवचने महसेनस्य ॥७५९॥ दृढता चिन्तनं च । मुसलोवमोहिं नीरंध-भावबद्धंऽधयारघोराहि । धाराहि तकखणं चिय, पासे वरिसेउमाऽऽद्धो ॥९९०८।। उन्भडसलिलुप्पीडेहि, पूरियं दंसिऊण दिसिवलय। निजमगमुणिम्मि संक-मित्तु महसेणमुल्लवइ ॥९९०९॥ हंभो ! किन्न पलोयसि, सव्वत्तो पसरमाणसलिलेण । गयणऽग्गलग्गसिहरा वि, गरुयगिरिणो वि हीरंति ॥९९१०॥ दीहरजडाकडप्पो-स्थइयधरामंडला वि दुमनिवहा । उम्मूलिया जलेणं, पलालपडलं विव लुलंति ॥९९११॥ किम्वा न नियच्छसि वोम-विवरपसरंतवारिपूरेहि। तारानियरो वि फुडं, तिरोहिओ नाइ न सम्मं ॥९९१२॥ इय एरिससलिलमहा-पवाहवेगेण वुब्भमाणस्स । तुह अम्हाण वि एत्थं, न जाव संपजए मरणं ॥९९१३॥ तावेतो ओसरिउ', जुञ्जइ मुणिवसह! मुयसु मरणरुई । जत्तेण रकखणिजो, अप्पा हु सुये जो भणिय ॥९९१४॥ "सव्वत्थ संजमं संज-माउ अप्पाणमेव स्खंतो। मुचइ अइवायाओ, पुणो विसोही न याविरई" ॥९९१५॥ न य अम्हारिसमुणिजण-विणाससंभूयभूरिपावाओ। एत्थ द्वियस्स थेवं पि, अत्थि मोकूखो धुवं तुज्झ ॥९९१६॥ जम्हा तुझ कएणं, अम्हे इह भद्द ! आवसामो त्ति । इहरा जीविउकामो, बसेज कि' को वि जलमज्झे ॥९९१७॥ इय साहुवयणमाऽऽयनि-ऊण थोय पि अविचलियचित्तो। महसेणो रायरिसी, परिभावइ निउणबुद्धीए ॥९९१८॥ को एसो पत्थावो, घणस्स कह वा इमो महासत्तो। साहू दरं अणुचिय-मेवं जंपेज दीणमणो ॥९९१९॥ अच्चतमेवमऽघडंतमेव, उपसग्गि' मम मन्ने । भावं परिक्खि वा, केणइ असुराऽऽइणा विहिय ॥९९२०॥ साहावियं जइ पुण, भवेज ता दिवसव्वदट्ठब्यो। गोयमसामी न मम, थेरे य इहाऽणुमन्नेा ॥९९२१।। ॥७५९॥

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