Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
Publisher: Kantilal Manilal Zaveri
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बाद सुह तस्स
संवेगरंगसाला
फलद्वार-समाप्तिः विजहनाद्वारस्वरूपं च ।
॥७५०॥
देवेंदचक्कवट्टी, इंदियसोकूख च जं अणुहवंति । ततो अणंतगुणियं; अव्वाबाहं सुहं तस्स
॥९७८४॥ तीसु वि कालेसु सुहाणि, जाणि पवराणि नरसुरिंदाणं । ताणेगसिद्धसोक्खस्स, एगसमयं पि नऽग्धंति ॥९७८५॥ विसएहि से न कज', जं नत्थि छुहाऽऽइयाओ बाहाओ। रागाइआ य उवभोग-हेउणो तस्स जं नत्थि॥९७८६॥ एत्तो चिय निच्चपि हु, भासणचंकमणचिंतणाऽऽईणं । चेट्ठाण नत्थि भावो, निट्ठियअहम्मि सिद्धम्मि ॥९७८७।। अणुवममऽमेयमक्खय-मऽमलं सिवमज्जरमऽरुजऽमभयं धुवं । एगतियमञ्चतिय-मऽव्वाबाहं सुहं तस्स ॥९७८८॥ इय पायवोवगमणाभिहाण-जिणजोग्गचरममरणस्स । आगमजुत्तीए फलं, संखेवेणं समक्खायं ॥९७८९॥ आराहणाफलमिणं, सो संवेगवड्ढिउच्छाहा । काऊण तई सव्वे, भव्वा निव्वुइसुहमुवितु ॥९७९०॥ इय करणसउणिपंजरसमाए, संवेगरंगसालाए । चउमूलद्दाराए, सोग्गइगमपउणवयवीए
॥९७९१॥ आराहणाए पडिदार-नवगमइए समाहिलभम्मि । भणियं चउत्थदारे, फलं ति अट्ठमपडिदारं ॥९७९२॥ जीवं पडुच्च पुव्वं, फलाऽवसाणाणि अरिहमाऽऽईणि । दाराणि दंसियाई, एत्तो पुण जीववियलस्स ॥९७९३॥ खमगसरीरस्स भवे, जो किर कायव्ववित्थरो कोई । सो विजहणदारेणं, जिणमयनिद्दिट्ठनाएणं ॥९७९४॥ भन्नइ साहूण अणु-ग्गहट्ठया होंति विजहणाए य । परिठवणा परिचाओ, उज्झणमिच्चाइ एगट्ठा ॥९७९५॥ सा पुण पुव्वपवष्णिय-कमेण खमगम्मि मरणमऽणुपत्ते । निजामगेहि सम्म, तदीयदेहस्स कायव्वा ॥९७९६॥ न य कायव्यो सोगो, जहा अहो ! सो तहा महाभागो। चिरमुवचरिओ चिरपज्जु-वासिओ चिरमऽहावसिओ॥९७९७॥
॥७५०॥

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