Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
Publisher: Kantilal Manilal Zaveri

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Page 766
________________ संवेगरंगसाला क्षपकस्य हितशिक्षा। ७२८॥ अंकुससरिसं अवधीरिऊण, तेसि च सदुपदेस पि। अंगपडिचारगे वि हु, नियगे वि परंमुहे ठविउं ॥९४९१॥ अञ्चतभत्तिकोऊ-हलाऽऽगयं पेच्छग पि बहुलोगं । विपरंमुहिउ निरवज-लजरज्जु च तोडित्ता ॥९४९२॥ पडिबद्धरिद्धिकुसुम', पत्तपरिग्गहपसोहियच्छायं । भममाणो सीलवणं, भंजिहिसि लहुं महाभाग! ॥९४९३॥ खडिहिसि समिइगिहमित्ति-संचयं लूरइस्ससि असेसं । गुत्तिवईवग्गं पिहु, दलिहिसि सुगुणाऽऽवणस्सेणि ॥९४९४॥ नूर्ण न भद्द ! कुलसंभवो ति, इय जणपवायरेणूहि । अवगुंडिजिहिसि चिरं, स(ग रिहिन्जसि बालगजणेण ॥९४९५॥ पुवाऽणुभूयरायाऽऽइ-विहियसम्माणणाऽऽइयगुणाणं । चुक्तिहिसि कुगइगड्डा-वडणेणं अह विणस्सिहिसि ॥९४९६॥ ता भद्द ! समीहियकज-सिद्धिविग्योउ विरमसु इमाउ । कंटगवेहुवमाउ, असमाहिपयाउ इण्हिं पि ॥९४९७॥ तह खुडकुमारी इव, तुम पिं अणुसरसु सम्मबुद्धीए । इण्हिं पि सुट्ठ गाइय-मिचाइगीइयाअत्थं ॥९४९८॥ निव्वाहिया हु तुमए, कोडी वयणिजवजिएणेव । अहुणा कागणिनिव्वा-हणे वि कीबत्तमुव्वहसि ॥९४९९॥ तिण्णो महासखुद्दो, तस्यिव्वं गोपयं तुहेयाणि । समइकंतो मेरू, परमाणू चिट्ठइ एत्तो ॥९५००॥ ता धीर! धरसु अञ्चन्त-धीरिम चयसु कीवपयइत्तं । हरिणकनिम्मलं निय-कुलं पि सम्म विभावेसु ॥९५०१॥ मल्लो व्व पेल्लिऊणं, पमायपरचकमेकहेलाए । एत्थेव पत्थुयत्थे, जहसत्तीए परकमसु ॥९५०२॥ परिभावेसु य पयईए, सुंदरतं तहाऽणुगामित्तं । भुजो य दुल्लहत्तं, धम्मगुणाणं अणग्याण ॥९५०३॥ सह सरसु खबग ! जं तं, मज्झम्मि चउव्विहस्स संघस्स । बूढा महापइन्ना, अयं आराहइस्सं ति ॥९५०४॥ ॥७२८॥

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