Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
Publisher: Kantilal Manilal Zaveri
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संवेग
रंगसाला
उत्तमार्थसाधने क्षपकस्य प्रेरणा।
I७३३॥
अकुसलकम्मुदउम्भव-कोवेण सिरम्मि निठुरफलेण । पहओ तभिच्चेहि, पत्थररासीकओ सहसा ॥९५५८॥ अह तह वि तेण मुणिणा, समाहिणा अहह ! कहवि तह सहियं । जह खवियकम्मकवओ, अंतगडोकेवली जाओ॥९५५९।। कि' वा कोसंबिनिवासि-जण्णदत्तस्स माहणस्स सुओ। सुणिओ न सोमदेवो, तब्भाया सोमदत्तो य ॥९५६०।। सिरिसोमभूइमुणिणो, पासे सम्मं पवनसामन्ना । संविग्गा गीयत्था, जाया ते अह विहरमाणा ॥९५६१॥ उज्जेणीसंकंताण, जणणिजणयाण बोहणणिमित्तं । पासम्मि गया तत्थ य, दिया वि वियर्ड किर पिबंति॥९५६२।। तो दव्वंऽतरजुत्तं, मुणीण सन्नायगेहि किर वियर्ड। दिन अन्ने अन्ना-णओ य वियर्ड चिय भणंति ॥९५६३॥ पीयं च तं विसेस, अयाणमाणेहि तेहिं साहूहि। जाया य वियडविहुरा, तदऽवगमे मुणियपरमत्था ॥९५६४।। चितेति ही! अजं, कयं ति एयं महापमायपयं । इय वेरग्गा भत्तं, पचविखय ते महाधीरा ॥९५६५।। एगम्मि नईतीरे, सुविसंठुलकडकूडउवरिम्मि । पाओवगया य अकाल-चरिससरिपूरहीरंता ॥९५६६।। जलहिगया जलचरभकख-णे वि उच्छल्लणाऽऽइदुत्थे वि। सम्मं समाहिपत्ता, अचलियसत्ता दिवं पत्ता ॥९५६७।। जइ ता एए एवं, असहाया तिव्ववेयणइढा वि। अच्चतमऽपडिकम्मा, पडिवण्णा उत्तिमं अटुं ॥९५६८॥ कि पुण अणगारसहायएण, कीरंतयम्मि परिकम्मे । संघे य समीवत्थे, आराहे न सकेजा ॥९५६९।। जिणवयणमऽमयभूयं, महुरं कन्नसुहयं सुणतेण । सक्को हु संघमज्झे, साहेउ उत्तिमो अट्ठो
॥९५७०॥ १ जण्णदंड पाठां ।
॥७३३॥
सं.रै ६२ चि

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