Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
Publisher: Kantilal Manilal Zaveri

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Page 777
________________ संवेगरंगसाला धर्म-शुक्रध्यानमेदानां स्वरूपम् । ॥७३९॥ । “कामाऽणुरंजियं अटुं, रोदं हिंसाऽणुरंजियं । धम्माऽणुरंजियं धर्म, सुक्क झाणं निरंजणं" ॥९६३५॥ अट्टे चउप्पयारे, रुद्दम्मि चउविहम्मि जे भेया। ते सव्वे परिजाणइ, संथारगओ खवगसाहू ॥९६३६॥ तो भावणाहिं भाविय-चित्तो झाएइ धम्मवरझाणं । चउहा वि नाणदंसण-चरित्तवेरग्गरूवाहिं ॥९६३७॥ पढम आणाविचयं, विपाकविचयं अवायविचयं च । संठाणविचयमेवं, धम्मज्झाणे झियाइ मुणी ॥९६३८॥ पउणमऽणवजमऽणुवम-मऽणाऽऽइनिहणं महत्थमऽवहत्थं । हियमजियमऽवितह-मऽविरोहमऽमोहमोहहरं ॥९६३९॥ गंभीरजुत्तिगरुयं, सुइसुहयमबाहयं महाविसयं । निउणं जिणाणऽऽमाण, चितेइ अचितमाहप्पं [दारं] १९६४०॥ इंदियविसयकसायाऽऽसवाऽऽइ-किरियासु वट्टमाणाणं । नरयाऽऽइभवाऽऽवासे, विविहाऽवाए विचितेजा [दारं] ॥९६४१॥ मिच्छत्ताऽऽइनिमित्तं, सुहाऽसुहं पयइठिइपएसाइं । कम्मविवागं चितेइ, तिव्वमंदाऽणुभावं सो [दारं] ।९६४२॥ पंचऽस्थिकायमइयं, लोगमऽणाऽऽइनिहणं जिणऽकूखायं । तिविहम होलोगाऽई, दीवसमुदाइ चितेइ ॥९६४३॥ होइ य झाणविरमे, निच्चमणिच्चाऽऽइभावणाऽणुगओ। ताओ य सुविहियाण, पवयणविहिणा पसिद्धाओ ॥९६४४॥ एवं समइक्कतो, धम्मज्झाणं जया भवइ खवओ। तत्तो झायइ सुक्क, चउमेयं सुद्धलेसागो ॥१६४५॥ विति पुहत्तवियक, सवियारं जिणवरा पढमसुक्क। बीयं सुक्कज्झाणं, एगत्तवियकमवियारं ॥९६४६॥ सुहुमकिरियानियट्टि', सुक्कज्झाणं भणंति तइयं तु । वोच्छिन्नकिरियमऽप्पडि-वाइकं खु चउत्थं पि ॥९६४७॥ पिहु वित्थरो ति भण्णइ, वित्थयभावो भवे प्रहत्तं ति। वित्थरओ तक्यई, चिंतयइ तो वियक ति ॥९६४८॥ ॥७३९॥

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