Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
Publisher: Kantilal Manilal Zaveri

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Page 778
________________ संवेगरंगसाला ॥७४० ॥ ।।९६५२॥ ॥९६५३॥ ॥९६५४॥ ॥९६५५ ॥ far वित्थरओ भors, परमाणुजियाऽऽइएगदव्वमि । उप्पायहिभंगा, मुत्तामुत्ताऽऽपञ्जाया तेसि' जं अणुसरणं, नयभेएहि बहुप्पयारेहि । होइ वियको त्ति सुयं, तो पुव्वसुयाऽणुसारेणं विचरण होइ विचारो, गमणं अन्नोनपजवेसुं तु । संकमणं अत्थवंजण, को अत्थो वंजणं किंवा दव्वं तु हो अत्थो, वंजण होअक्खरं तु नामं च । जोगो य मणाऽऽईओ, अंतरभेएस एएस जं संचरण नोन्ने, सो नियमा भण्णए वियारो त्ति । सह तेण वियारेणं, तो सवियारं पढमसुक' अहुणेगत्तवियक', एगत्तं नाम एगपजाये । उप्पायठिईभंगाऽऽह - याणं जं होइ एगयरे होइ वियक' ति सुयं, पुव्वगय' तेण तं वियक्क' ति । न वि धरइ जमऽण्णन्ने, वंजण अत्थे व जोगे वा तो भन्नइ अवियारं, निकंपं तं निवायदीवो व्त्र । बियसुक्कमेव भणियं, एगत्तवियकमऽवियारं सुमम्मि कायजोगे, केवलिणो होइ सुहुमकिरियं तु । अकिरियमऽप्पडिवाई, सेलेसीए चउत्थमिणं एयं कसायजुज्झम्मि, होइ खवगस्स आउहं झाणं । झाणविहुणो ण जिणइ, जुज्झं व निराऽऽउहो सुहडो ॥ ९६५८ ।। इय झायंतो खवओ, जझ्या वोत्तम समत्थओ होइ । तइया निजवगाणं, साऽभिप्पायप्पयडणत्थं ।।९६५९।। हुंकारंऽजलिभमुखंगुलीहि, अच्छीविकूणणेणं वा । सिरचालणपमुहेहि य, लिंगेहि निदंसह सष्णं तो पडियरगा खवगस्स, देति आराहणाए उपयोगं । जाणंति सुयरहस्सा, कयसन्ना तस्स माणसियं इय समभावमुवगओ, तह झाय तो पसत्थय झाणं । लेसाहि ́ विसुज्झतो, गुणसेढि सो समारुहइ ॥९६५६॥ ॥९६५७॥ ॥९६६०॥ ॥९६६१ ॥ ॥९६६२।। ।।९६४९।। ॥९६५०॥ ॥९६५१ ।। शुक्लध्यानभेदानां स्वरूपम् । ॥७४० ॥

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