Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
Publisher: Kantilal Manilal Zaveri
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संवेगरंगसाला
पापगर्दा |हितशिक्षा च।
॥७२॥
रागेण मंसभकखण-पामोकूख अभकूखभकखणाऽयं । महुमजलावगरस-प्पमुहं पाणं च जंकिंचि ॥९३९६।। दोसेण परगुणाऽसहण-निदणखिसणाऽऽइ किचि । मोहमहागहगहिएण, बहुविहं बहुविहाणेहि ॥१३९७।। हे श्रोवाएयवियार-सुबचित्चेण जच किर किचि । पावाऽणुबंधिपावं, पमायओ वा कयं जं च ॥९३९८॥ कयमिममिमं च काहं, करेमि इमगं तु इयवियप्पेहिं । वोलीणाऽणागयवट्ट-माणकालत्तिगाऽणुगयं ॥९३९९।। तं संविग्गमणो हं, तिविहंतिविहेण गरहणविसुद्धो। आलोयणनिंदणगरि-दणाहिं सव्वं विसोहेमि ॥९४००॥ एवं दुचरियगणं, गुणाऽऽगरो गरहिऊण जहसरियं । पडिबंधनिगेहकए, अप्पाणं पनवेज जहा ॥९४०१॥ अच्चतपरमरमणीययाए, एत्तो अणंततमगुणिए । सुरलोयरइजणए. सिगारपए य सद्दाऽऽई
॥९४०२।। विसए अणुहविय पुणो, इमे वि इहभवियतुच्छवीभच्छे । तयणंतगुगविहीणे, मा चितेजासि जीव! तुमं ।।९४०३॥ तहऽसंखतिकृखलकखत्तणेण, एत्तो अणंततमगुणियं । दीहरनिरंतरं दुकख-मेव नरएसु सहिऊण ॥९४०४।। नाणाविहसारीरिय-बाहाजोगे वि मा इयाणि पि। आराहणाकयमणो, मणा वि कोवेज जीव! तुमं ॥९४०५॥ पेहेसु निउणबुद्धीए, नथि थेवं पि तुज्झ साहारो। दुक्खाण सम्मसहणं, मोत्तं सयणाओ जेण सया ॥९४०६।। एको चिय भद्द ! तुमं,ण विजए तिहुयणे वि तुह बीओ। तुममऽवि न चेव बोओ, कस्स वि अन्नस्स भुवणंतो॥९४०७॥ अकखंडनाणदंसण-चरित्तपरिणामपरिणओ धणियं । अप्प चिय तुह बायो, सम्मं धम्माऽणुगो एक्को ॥९४०८॥ संजोगकारणो खलु, जीवाणं दुकूखसमुदयो सब्वो। ता सव्वं संजोग, जावजीवं पि वजितो ॥९४०९॥
सं.र.६१
॥७२॥

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