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समयसार
२०
( अनुष्टुभ् ) अतः शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत्। नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुञ्चति।। ७ ।।
भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च। आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।। १३ ।।
भूतार्थेनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च। आस्रवसंवरनिर्जरा बन्धो मोक्षश्च सम्यक्त्वम्।। १३ ।।
अवस्थाकी प्रार्थना है, कोई नयपक्ष नहीं है। यदि सर्वथा नयोंका पक्षपात ही हुआ करे तो मिथ्यात्व ही है।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि-आत्मा चैतन्य है, मात्र इतना ही अनुभवमें आये तो इतनी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है या नहीं? उसका समाधान यह है:-नास्तिकोंको छोड़कर सभी मतवाले आत्माको चैतन्यमात्र मानते हैं; यदि इतनी ही श्रद्धाको सम्यग्दर्शन कहा जाये तो सबको सम्यक्त्व सिद्ध हो जायेगा, इसलिये सर्वज्ञकी वाणीमें जैसा सम्पूर्ण आत्माका स्वरूप कहा है वैसा श्रद्धान होनेसे ही निश्चय सम्यक्त्व होता है, ऐसा समझना चाहिये।। ६।।
अब, टीकाकार आचार्य निम्नलिखित श्लोकमें यह कहते हैं कि 'तत्पश्चात् शुद्धनयके आधीन, सर्व द्रव्योंसे भिन्न , आत्मज्योति प्रगट हो जाती है' :
श्लोकार्थ:- [अतः] तत्पश्चात् [शुद्धनय-आयत्तं] शुद्धनयके आधीन [ प्रत्यग-ज्योतिः] जो भिन्न आत्मज्योति है [ तत् ] वह [चकास्ति ] प्रगट होती है [ यद् ] कि जो [ नव-तत्त्व-गतत्वे अपि] नवतत्त्वोंमें प्राप्त होनेपर भी [ एकत्वं ] अपने एकत्व को [ न मुञ्चति ] नहीं छोड़ती ।
भावार्थ:- नवतत्त्वमें प्राप्त हुआ आत्मा अनेकरूप दिखाई देता है; यदि उसका भिन्न स्वरूप विचार किया जाये तो वह अपनी चैतन्य-चमत्कारमात्र ज्योतिको नहीं छोड़ता ।। ७।।
इसप्रकार ही शुद्धनयसे जानना सो सम्यक्त्व है, यह सूत्रकार इस गाथामें कहते हैं:
भूतार्थसे जाने अजीव जीव, पुण्य पाप अरु निर्जरा। आस्रव संवर बंध मुक्ति, ये हि समकित जानना।।१३।।
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