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समयसार
૨૮
( मालिनी) व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्यामिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः। तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किञ्चित्।।५।।
__ अब आचार्य शुद्धनयको प्रधान करके निश्चय सम्यक्त्वका स्वरूप कहते हैं। अशुद्धनयकी (व्यवहारनयकी) प्रधानतामें जीवादि तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है, जब कि यहाँ उन जीवादि तत्त्वोंको शुद्धनय के द्वारा जाननेसे सम्यक्त्व होता है, यह कहते हैं। टीकाकार इसकी सूचनारूप तीन श्लोक कहते हैं; उनमेंसे प्रथम श्लोकमें यह कहते हैं कि व्यवहारनयको कथंचित् प्रयोजनवान कहा तथापि वह कुछ वस्तुभूत नहीं है :
श्लोकार्थ:- [ व्यवहरण-नयः ] जो व्यवहारनय है वह [ यद्यपि ] यद्यपि [इह प्राक्-पदव्यां] इस पहली पदवीमें (जब तक शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति नहीं हो जाती तबतक) [ निहित-पदानां] जिन्होंने अपना पैर रखा है ऐसे पुरुषोंको, [ हन्त ] अरे रे! [ हस्तावलम्ब: स्यात् ] हस्तावलंबन तुल्य कहा है, [ तद्-अपि] तथापि [ चित्चमत्कार-मात्रं पर-विरहितं परमं अर्थं अन्तः पश्यतां] जो पुरुष चैतन्य-चमत्कारमात्र, परद्रव्यभावोंसे रहित (शुद्धनयके विषयभूत) परम 'अर्थ' को अंतरङ्गमें अवलोकन करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं तथा उसरूप लीन होकर चारित्रभावको प्राप्त होते हैं उन्हें [ एषः ] यह व्यवहारनय [ किञ्चित् न ] कुछ भी प्रयोजनवान नहीं है।
भावार्थ:- शुद्ध स्वरूपका ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण होनेके बाद अशुद्धनय कुछ भी प्रयोजनकारी नहीं है।। ५।।
अब निश्चय सम्यक्त्वका स्वरूप कहते हैं :
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