Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 10
________________ प्रस्तावना अनेकान्त की विचारधारा बहुत प्राचीन एवं व्यापक है । वेद, उपनिषद, अन्य दर्शनों, अन्य वैचारिक संप्रदायों, परवर्ती चिन्तकों और परवर्ती दार्शनिक संप्रदायो में भी यह विचारधारा अथवा इसके समानधर्मा विचारों का उल्लेख देखने में आता है। अनेकान्त की विचारधारा चाहे जितनी प्राचीन हो, या व्यापक रही हो, जैनदर्शन के विशिष्ट विचार के रूप में स्थापित होने के बाद आज तक अनेकान्तवाद दर्शन क्षेत्र में अथवा इसके बाहर के क्षेत्रों में भी विचित्र रूप में देखा जाता रहा है। वास्तव में अनेकान्त दर्शन अहिंसा को पुष्ट करनेवाली विचारधारा है। अहिंसा का मूल उद्गम समत्व से होता है, और समत्व ही अनेकान्त का हृदय है। अनेकान्त का अभिप्राय है- अनेक धर्मवाला पदार्थ । वस्तु सर्व धर्ममय नहीं अनेक धर्ममय है । उसे सर्वथा एक धर्मात्मक भी नहीं कहा जा सकता। जैसे - अग्नि, जल, आदि । अग्नि ज्वलनशील है, प्रकाशप्रद है, उष्ण आदि . गुण वाली है। जल शीतल है, प्रवाहयुक्त है, रूप रस, गंध वर्णयक्त है, भारी है, हल्का है, पुद्गल है इत्यादि । प्रत्येक पदार्थ इसी प्रकार विविध स्वधर्म गुणों का निकाय है। यदि उसे किसी एक धर्म से अविच्छिन और कूटस्थ मानें तो इतर विधमान धर्मों को अस्वीकार करना होगा । स्वीकारने अथवा अस्वीकारने मात्र से पदार्थों का निर्णय सिद्ध नहीं होता । दार्शनिक दृष्टि संकुचित न होकर विशाल होनी चाहिए । जितने भी धर्म वस्तु में प्रतिभासित होते हों, उन सबका समावेश उस दृष्टि में होना चाहिए। यह ठीक है कि हमारा दृष्टिकोण किसी समय किसी एक धर्म पर विशेष भार देता है, किसी समय किसी दूसरे धर्म पर । इतना होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि वस्तु में अमुख धर्म है और अन्य कोई धर्म नहीं । वस्तु का

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