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[१०] तब ज्ञानी बोले-'मनुष्यरूपेण तृणानि मन्ये' अर्थात्-अधर्मी मनुष्य तृण जैसा तुच्छ है । तब तणका पक्ष धारण करके विद्वान् बोला
गवि दुग्धे रणे ग्रीष्मे, वर्षाहेमन्तयोरपि । तृणां त्राण महं स्यात्, तत्समत्वं कथं तृणं ॥ ३ ॥
तृणको गाय खाती है, जिससे दूध जैसा उत्तम पदार्थ उत्पन्न होता है । गरमी और सर्दी और वर्षाकालमें छाया आदि कर मनुष्यको आराम देता है। ऐसे तृणसे उस अधर्मीकी उपमा कैसे दी जा सकती है। __ तब ज्ञानी बोले- 'मनुष्यरूपेण भवन्ति वृक्षाः' अर्थात्-अधर्मी मनुष्य वृक्षके समान है।
तब विद्वान् वृक्षका पक्ष लेकर बोला:छायां प्रकुर्वते लोके, फ्ल पुष्पं च ददाति । पक्षिणां सर्वदाधारं, गृहद्वारं च हेतवे ॥ ४ ॥
वृक्ष धूपसे व्याकुल मनुष्यको छांया ठंडक पहुंचाता है, पत्र पुष्प इत्यादिक देकर सब जगत् को पोषता है तथा पक्षियोंका तो सब प्रकारसे आधार ही है। ऐसे गुणाढ्य पदार्थकी उपमा अधर्मी