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[ ४० ] अन्धे तमसि मजमाः पशुभिये यजामहे ॥ हिंसा नाम भवेद्धर्मे, न भूतो न भविष्यति ॥ अर्थात् — जो हम पशुओं से देवतादिक की पूजा करें तो अन्धतम (नरक) में डूब जावें, क्यों कि हिंसा में धर्म न कभी हुआ और न कभी होंगा ।
पहिले त्रेतायुगमे मांस भक्षण करनेवालेको राक्षस कहते थे, ऐसा "ब्रह्मबोध" ग्रन्थ में लिखा है और भी श्रीमद्भागवत के स्कन्ध ७ के १४ अध्याय में कहा है कि "प्राचीन बर्हीीं" नामके राजा गुरुओं के उपदेशका अनुकरण करके यज्ञमें अनेक पशुओं को होम डाले, यह जानकर नारद ऋषि उसका उद्धार करनेको आकर कहने लगे ।
भो भो प्रजापते राजन्, पशून् पश्य त्वयाऽध्वरे । संज्ञापिता जीवसंधान, निर्घृणेन सहस्रशः ॥ १ ॥ एते त्वां संप्रतीक्षन्ते, स्मरंतो वैशसं तव । संपरे समयः कूटैः छिदंत्युत्थितमन्यवः ॥ ८ ॥ अर्थात् - हे राजा ! तूने यज्ञमें हजारों पशुओंका वध किया है, वे सत्र पशु तेरी मार्ग प्रतीक्षा करते हैं - रास्ता देखते हैं, क्यों कि जिस प्रकार तूने उन