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[ ७५ ] जो दिन जन्म लियो जगमें। _जब केतिक कोटी लिए संग आयो॥ वाको भरोसा क्यों छांडे अरे मन ।
जासों आहार अचेतमें पायो । ब्रह्म भने जनि सांच करे वही ।
सोची जो बिरह लाहू लहायो । जब दांत न थे तब दृध दियो ।
जब दांत भए तो अनाज ही देह ॥ जीव वसे ही जल आ थलमें ।
तिनकी सुधि लत सो तेरी ही लेइ ।। क्यों अब सोच करे नर मूरग्व ।
सोच करे कछु हाथ येई ॥ जानको देत अजानको देत ।
जहानको देत सो तेरेको देई ॥ देखिए ! जंगलमें रहनेवाले पशु, पक्षियों और जलचरोंको उनकी कोई जागीर नहीं, न उनका किसी वस्तुका संग्रह, बिलकुल ही निराधार दिखते हैं, तो भी वे किसी बातसे मोहताज नहीं रहते हैं, समय पर उनको दैवगतिसे सब कुछ मिल जाता है, फिर हम तो मनुष्य हैं बोलकर अपने विचार दूसरोंको दर्शा सकते हैं। पांव, हाथोंसे अनेक काम