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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 25 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
जाती है तो पता नहीं कितनी जगह सिर पटककर आ जाते हों महाराजश्री! लोकव्यवहार है, लोकाचार हैं अहो! सम्यकत्व कहाँ ? क्योंकि यह लोकाचार नहीं है, लोकोत्तराचार है, यह मोक्षमार्ग की यात्रा हैं इसलिए ऐसा ही दृढ़-सम्यक्त्वी लिख सका :
भयाशा-स्नेह-लोभाच्च, कुदेवागमलिङ्गिनाम् प्रणाम विनयं चैव न कर्यः शुद्धदृष्टयः30-र.क.श्रा.
भो ज्ञानी! ध्यान रखो, जिसे लोक में जीना है वह लोकव्यवहार बनाकर चलें और जिन्हें लोक में नहीं जीना, सिद्ध बनके रहना है, ऐसा ज्ञानीआत्मा “प्रणामं विनयं चैव न कुर्यरू शुद्धदृष्टयरू" प्रणाम, विनय आदि भी नहीं करता, वह शुद्ध सम्यकदृष्टि जीव हैं हम मात्र आपस में ही शुद्धदृष्टि बन रहे हैं, आपस में कलुषता बढ़ा-बढ़ाकर शुद्ध सम्यकदृष्टि बन रहे हैं ओहो! तुमसे बड़ा तो कोई मिथ्यादृष्टि नहीं जब समन्तभद्र स्वामी के सामने लोकविनय का प्रसंग आया तो बैठ गये ध्यान में, हे नाथ! क्या होगा? जिनशासन -रक्षणी, ज्वालामालिनी देवी प्रकट होकर कहती है- हे समन्तभद्र स्वामी ! 'चिंता मा कुरू', आप चिन्ता मत करो! तुम्हारी दृढ़ श्रद्धा कभी च्युत नहीं हो सकतीं समन्तभद्र प्रसन्न होकर बोले-राजन्! पिंडी नमस्कार सहन नहीं कर सकेगी, तो राजा ने पिंडी को बंधवा दिया था सांकलों से, हाथियों से परंतु , भो ज्ञानी आत्माओ!
चंद्रप्रभं चंद्र-मरीचि-गौर, चन्द्रं द्वितीयं जगतीवकान्तम् वन्देऽभिवन्धं महतामृषीन्द्रं, जिनं जित-स्वान्त-कषाय- बन्धम् (स्व.स्तो.)
जैसे ही 'वन्देऽभिवन्द्य' कहा, कि भगवान् चंद्रप्रभु स्वामी प्रकट हो गयें मनीषियो! जिनके अंतरंग में ऐसा निर्मल सम्यक्त्व लहरें ले रहा हो, ऐसे जीव आचार्य समतंभद्र स्वामी को आचार्यों ने भावी तीर्थकर कहा हैं उन्होंने 'स्वयंभस्तोत्र, देवागम-स्तोत्र' लिखकर स्यादवाद/ अनेकांत का विस्तृत कथन किया हैं 'अष्टसती' अकलंकदेव का एवं 'अष्ट-सहस्त्री' आचार्य विद्यानंद जी के 'देवागम स्तोत्र' पर टीकाग्रंथ हैं और ग्रंथकर्ता लिखने के बाद लिख रहे हैं कि यह तो कष्ट-सहस्त्री है, क्योंकि इतना गूढ़ हो गया, कि सामान्य लोगों को तो इसकी हिन्दी भी समझ नहीं आतीं परंतु लिखना बहुत अनिवार्य था, क्योंकि कुछ लोगों को तत्त्व से प्रयोजन नहीं था, उन्हें कथ्य से ही प्रयोजन थां
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