Book Title: Puja Sangraha
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 11
________________ द्वादशांगादि सूत्रार्थ दानें,जिके सावधानानिरुकानिमानें ॥१॥ धरे पंचने वर्गवर्गित गुणौघा, प्रवादि हिपोछेदने तुल्य सिंघा ॥ गणी गलसंधारणे स्थंजनूता, उपाध्याय ते वंदियें चित्प्रनूता ॥२॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ खंतिजुआ मुत्ति जुश्रा,अजव मदव जुत्ता जी॥ सच्चं सोय अकिंचणा, तव संजम गुणरत्ता जी ॥१॥ उलालो ॥ जे रम्या ब्रह्म सुगुत्ति गुत्ता, समिति समिता श्रुतधरा ॥ स्याहादवादें तत्त्ववादक, आत्मपर विनजनकरा ॥ नवनीरु साधन धीरशासन, वहन धोरी मुनिवरा ॥ सिझांत वायण दान समरथ, नमो पाठकपदधरा ॥२॥ ॥पूजा ॥ ढाल ॥श्रीपालना रासनी देशी ॥छादश अंग सजाय करे, जे पारग धारग तास ॥ सूत्र अर्थ विस्तार रसिक ते, नमो उवजाय उदास रे ॥ ॥ज ॥ सि० ॥ १६ ॥ अर्थ सूत्रने दान विनागें, श्राचारज उवकाय ॥ जव त्रण्ये जे लहे शिवसंपद, नमियें ते सुपसाय रे ॥ न ॥ सि० ॥ १७ ॥ मूरख शिष्य निपाई जे प्रनु, पहाणने पद्धव आणे ॥ ते जवजाय सकलजन पूजित,सूत्र अरथ सवि जाणे रे॥ न०॥ सि ॥ १० ॥ राजकुमर सरिखा गणचिंतक, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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