Book Title: Puja Sangraha
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 43
________________ (३ए) नवर लाखे, कुमति कुसंग सब उर जगरी ॥ शुद्ध ॥४॥ नवपद शेष सूरीश्वर श्रादि, वैयावृत्त्यकर उवि जगरी ॥ शुरु ॥ ५॥ सतपंच मुनिनुं वेयावच्च करीने, जरत बाहुल शिव मगरी ॥ शु० ॥ ६ ॥ नृप जिमूतकेतु पद साधी, श्रातम जिन पद रस गगरी ॥ शु०॥७॥ काव्यम्॥श्रतिश० ॥ मंत्रः॥3 ही श्री ॥ परम वैयावृत्त्याय जला०॥ यजाण ॥१६॥ ॥अथ सप्तदश समाधिपदपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥नीजातम गुण रमणता,इंघिय तजी विकार॥ थिर समाधि संतोषमें, जव फुःखजंजनहार॥१॥ ॥मानो ने चेतनजी मारीवात मानो ने॥ए देशी॥ ॥राग खमाच ॥राचो रे चेतनजी मन शुरू लाग ॥ राचो० ॥धारो धारो समाधि केरो राग ॥राचो०॥ ॥१॥ या संग नाश कह्यो नववनको, अब क्युं सरको नाग ॥ राचो ॥२॥ अव्यसमाधि नाव समाधि, सुमति केरो सुहाग ॥ राचो ॥३॥ अशन वसनसे नक्ति संघकी, अव्यसमाधि अथाग॥ ॥राचो० ॥ ४ ॥ सारण वारण चोयण करनी, पुतिय समाधी, जाग ॥ राचो ॥५॥ सकल संघकू सुविध समाधि, निपजावे महानाग ॥ राचो ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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