Book Title: Puja Sangraha
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 66
________________ (६२) ध्यो जिनपद उत्तंग,श्रातम हितकारी॥ना॥५॥१६॥ ॥अथ सप्तदश वाजिन पूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा ॥ तत वीतत घन जूसरे, वाद्य नेद चार ॥ विविध ध्वनि कर शोनते, पूजा सतरमी सार ॥१॥ समवसरणमें वाजिया, नाद तणा ऊंकार ॥ ढोल ददामा इंफुनी, नेरी पणव उदार ॥२॥ वेणू वीणा किंकिणी, षड् ब्रामरी मरदंग ॥ ऊलरी जा नादयुं, शरणाई मुरजंग ॥३॥ पंच शब्द वाजे करी, पूजे श्री अरिहंत ॥ मनवांबित फल पामियें, लहियें लान अनंत ॥१४॥ ॥ ढाल ॥ मन मोह्या जंगलकी हरणीने ॥ए दे. शी॥ नवि नंदो जिनंद जस वरणीने ॥ ए आंकणी॥ वीण कहे जग तुं चिर नंदे, धन धन जग तुम करणी ने ॥ ज० ॥१॥ तुं जगनंदी आनंदकंदी, तपली कहे गुण वरणीने ॥०॥५॥ निर्मल ज्ञान वचन मुख साचे, तूण कहे कुःख हरणीने ॥ ज० ॥३॥ कुमति पंथ सव बिनमें नासे, जिन शासन उदेधरणी ने॥ज॥४॥ मंगल दीपक श्रारति करतां, बातम चित्त शुज जरणीने ॥जाय॥इति सत्तरमी पूजा॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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