Book Title: Puja Sangraha
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 68
________________ (६४) पदकज प्रणमी तेहनां, श्राणी जाव उलास ॥२॥ पूजा अष्टप्रकारनी, अंग तीन चित धार ॥ अग्र पंच मनमोदसें, करि तरिय संसार ॥३॥ न्हवण विलेपन सुमनवर, धूप दीप अति चंग ॥ वर अक्षत नैवेद्य फल, जिन पूजन मन रंग ॥॥४॥उज्ज्वल विमल वसन धरी,शुचि तनु मन जिन राग ॥ उत्तरासंग मु. खकोशको, बांधो सुजग सोनाग ॥५॥ अधिक सुगंध जलें जरी, कंचन कलश अनूप ॥ नर नारी नक्ने करी, पूजे त्रिजुवन नूप ॥६॥ ॥अथ प्रथम न्हवण पूजा प्रारच्यते ॥ ॥राग मालकोश ॥ न्हवण करो जिनचंद,आनंद जर॥न्हवण॥ए आंकणी॥कंचन रतन कलशजल नरकें, महके वास सुगंध ॥ श्रा॥१॥ सुरगिरि ऊपर सुरपति सघरे, पूजे त्रिजुवन इंद ॥आ॥२॥ श्रावक तिम जिन न्हवण करीने,काटे कलिमल फंद ॥ आ० ॥३॥ श्रातम निर्मल सब अघ टारी, अरिहंत रूप अमंद ॥ श्रा०॥४॥ ॥ दोहा ॥ जलपूजा विधिसे करे, टरे करममल वृंद ॥ हरे ताप सब जगतकी, करे महोदय चंद ॥१॥ ॥अथ गीतं ॥राग जयजयवंती॥ सुरगण इंद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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