Book Title: Puja Sangraha
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
View full book text
________________
( ८३ )
रा वरसे रे, जिन शासन हे जयकारी ॥ हुं जाउं बबिहारी वारी रे || हुं० ॥ महावीर तोरे ॥ सम०॥२॥ ज्ञान विमल सूरि रे, जिन गुण गावे रे, तारयां बे नर ने नारी ॥ हुं जाउं बलिहारी वारी रे ॥ म० ॥ ३॥
॥ अथ अध्यात्म सधाय ॥
॥ राग माढ ॥ अध्यातम प्रीत लागी रे, प्रीतलागी रे अध्यातम ॥ एकणी ॥ जेसें पंखी पींजरे रे, सोच करे मन मांद ॥ पर गुण अवगुणना लदे री, रहत जगतसें उदास ॥ अध्या० ॥ १ ॥ रत्न जडितको पिंजरो रे, शुका जानत फंद || तीनलोककी संपदा रे, मुनि जन मानत फंद ॥ अध्या० ॥ २ ॥ कदली वन रेवा नदी रे, गज चाहे मनमांहि ॥ दर्शन ज्ञान चारित्रकुं रे, मुनि जन विसरत नांहि ॥ श्र ध्या० ॥ ३ ॥ सोहं सोहं सोहं सोहं, अजपा जपे रे जाप || तिन लोककुं सुख करे रे, केवल रूपी श्राप ॥ अध्या० ॥ ४ ॥ एसे गुरुकुं सेवीयेंजी, रहत जगतसे उदास ॥ राग द्वेष दोय परिहरे ताकुं, रहत आनंदघन पास || अध्या० ॥ ५ ॥
॥ अथ वैराग्यपदम् ॥ ॥ राग सोरठी ॥ डुनीयां मतलबकी गरजी के,
For Personal and Private Use Only
Jain Educationa International
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96