Book Title: Puja Sangraha
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 44
________________ ( ४० ) पंच सुमतितिन गुप्ति धरे नित, निशिदिन धरत विराग ॥ राचो० ॥ ७ ॥ चार निक्षेप नय सप्तनंगी, कारण पंच निराग ॥ राचो० ॥ ८ ॥ चार प्रमाण द्रव्य षट मानें, नव तत्त्व दिलमें चिराग ॥ राचो० ॥ ए ॥ सामायिक नव द्वार विचारी, निज सत्ताको विजाग ॥ राचो० ॥ १० ॥ पुरंदर नृप ए पद सेवी, तम जिनपद माग ॥ राचो० ॥ ११ ॥ काव्यम् ॥ अतिश० ॥ मंत्रः ॥ ॐ श्री श्री परम० ॥ समाधये ज० ॥ य० ॥ इति सप्तदश समाधि पद पूजा ॥ ॥ श्रथाष्टादशाजिनवज्ञानपदपूजाप्रारंभः ॥ दोहा ॥ ज्ञान पूरव ग्रहण कर, जागे अनुज व रंग ॥ कुमति जाल सब जार कें, उबले तत्त्वतरंग ॥ १ ॥ पद ढारमे पूजियें, मन धरि अधिक उमंग ॥ ज्ञान पूरव जिन कहे, तजी कुगुरुको संग ॥ २ ॥ मन मोह्या जंगलकी हरणीने ॥ मन० ॥ ए देशी ॥ जवि वंदो, अपूर्व ज्ञानतरणीने ॥ जवि० ॥ ए श्रांकणी ॥ कुमति घूक सब अंध हुये हैं, मूले जडमति करणीने ॥ नवि० ॥ १ ॥ ज्ञान पूरव जबही प्रगटे, शुद्ध करे चित्तधरणीने ॥ जवि० ॥ २ ॥ निर्युक्ति शुद्ध टीका चूर्णी, मूल जाष्य सुख जरणीने ॥ नवि० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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