Book Title: Puja Sangraha
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 21
________________ ( १७ ) ता त्रिहुं ज्ञानें संयुत, ते जवमुगति जिणंद ॥ जेह यादरे कर्म खपेवा, ते तप शिवतरु कंद रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४१ ॥ कर्म निकाचित पण खय जाई, क्षमा सहित जे करतां ॥ ते तप नमियें जेह दीपावे, जिन शासन उजमंतां रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४२ ॥ खामोसही पमुहा बहु लद्धि, होवे जास प्रजावें ॥ श्रष्ट महासिद्धि नव निधि प्रगटे, नमियें ते तप जावें रे ॥ ज०॥ सि० ॥ ४३ ॥ फल शिवसुख महोढुं सुर नरवर, संपति जेहनुं फूल ॥ ते तप सुरतरु सरिखुं वंदूं, शममकरंद मूल रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४४ ॥ सर्व मंगल मांहि पहेलुं मंगल, वरणवियें जे ग्रंथें ॥ ते तप पद त्रिहुं काल नमीजें, वर सहाय शिवपंथें रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४५ ॥ इम नवपद थुणतो तिहां लीनो, दुर्ज तन्मय श्रीपाल ॥ सुजसविलास बे चोथे खंदें, इग्यारमी ढाल रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४६ ॥ एह ॥ ढाल ॥ इवारोधें संवरी परिणति समता योगें रे ॥ तप ते एहि आतमा, वर्ते निजगुण जोगें रे ॥ वी० ॥ १० ॥ आगम नोयागम तणो, जाव ते जाणो साचो रे ॥ श्रातम जावें थिर होजो, परजावें मत राचो रे ॥ वी० ॥ ११ ॥ ष्ट सकल समृद्धिनी, २ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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