Book Title: Puja Sangraha
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 16
________________ (१५) निजेला स्वजावा ॥१॥ होय पंचमत्यादि सुझाननेदें, गुरूपास्तिथी योग्यता तेह वेदें ॥ वली झेय हेय जपादेय रूपें, लहे चित्तमां जेम ध्वांतप्रदीपें ॥२॥ ॥ ढाल, उलालानी देशी ॥ जव्य ! नमो गुण ज्ञाननें, स्वपरप्रकाशक नावें जी॥ परजय धर्मानंतता, नेदानेद खनावें जी ॥१॥ उलालो ॥ जे मुख्य परिणति सकल झायक,बोध नाव विलछना॥मतियादि पंच प्रकार निर्मल, सिझ साधन ललना ॥स्याहा. दसंगी तत्त्वरंगी, प्रथम नेदानेदता ॥ सविकल्पने अविकल्प वस्तु, सकल संशय बेदता ॥५॥ ॥पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी देशी ॥नदअनद न जे विण लहियें, पेय अपेय विचार ॥ कृत्य अकृत्य न जे विण लहिये, ज्ञान ते सकल श्राधार रे॥०॥ नि० ॥३१॥प्रथम ज्ञान में पड़ी अहिंसा, श्री सिद्धांतें नांख्यु ॥ज्ञाननें वंदो झान म निंदो, ज्ञानियें शिवसुख चाख्यु रे ॥ न ॥ सि ॥ ३ ॥ सकल क्रियानुं मूल ते श्रद्धा, तेहy मूल जे कहियें॥ तेह झान नित नित वंदीजें, ते विण कहो किम रहिये रे ॥ ज० ॥ सि ॥ ३३ ॥ पंच ज्ञानमांहि जेह सदागम, खपर प्रकाशक तेह ॥ दीपक परें त्रिजुवन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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