Book Title: Proceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Author(s): K R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
View full book text
________________
19
४- वज्रगुप्त द्वारा वैताल को साधना करना, दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करनां
इत्यादि ।
10
समराइच्चकहा इस प्रकार के लोकतत्त्वों से भरी पड़ी है । लीलावईकहा में भी चित्रांगद को शाप देकर राक्षस बनाना, पुनः राजकुमार बनजाना, अनेक सिद्धियों का चमत्कार दिखाना आदि इस कोटि के लोकतत्त्व उपलब्ध हैं ।
२. -- प्राकल्पना-आदिम लोकमानस यथार्थ और कल्पना में प्रायः भेद नहीं कर पाता था । इस कारण वह स्वप्नजगत् को भी सत्य मानकर चलता था । शरीर और छाया को एक मानता था तथा मृतक को भी जीवित जैसा मानकर आचरण करता था । ये विश्वास आलोच्य युग में भी व्याप्त थे । कुवलयमाला में सुन्दरी को कथा द्वारा इस लोकतत्त्व का प्रतिनिधित्व हुआ है, जिसमें वह अपने मृत पति के साथ वैसा ही आचरण करती रहती है, जैसा वह उसकी जीवित अवस्था में उसके साथ करती थी" । यद्यपि कथा का दूसरा पक्ष राजकुमार अनंग का आचरण इस लोकविश्वास का युक्तिपूर्वक खण्डन भी करता है । इस प्रकार के आचरण को मोह कहकर उसके द्वारा संसार से विरक्ति उत्पन्न करवायी गयी है ।.
1
३- अनुष्ठानिक विचारणा- कुवलयमालाकहा में इस लोकतत्त्व से सम्बन्धित अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं । कथा के प्रारम्भ में ही राजा-रानी द्वारा पुत्रप्राप्ति की विभिन्न प्रकार की मनौतियाँ मनायी जाती हैं। राजा दृढवर्मा देवी के समक्ष अपना सिर काटकर अर्पित करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं । तभी देवी प्रगट होकर उन्हें सन्तानलाभ का वरदान देती है । सन्तान प्राप्ति के लिए संभोग क्रिया को ही पर्याप्त कारण स्वीकार न करना लोकमानस की प्रमुख प्रवृत्ति रही है । विशेष विधि के अनुष्ठान से अभीष्ट की सिद्धि होगी -- यह विश्वास अनेक लोकतत्त्वों के रूप में प्रगट हुआ है । स्वर्ग-नरक में विश्वास, शकुन-अपशकुन का विचार तथा कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन इनमें प्रमुख हैं । उद्योतनसूरि ने इन सब पर विस्तार से अपने विचार प्रगट किये हैं । लोभदेव समुद्र को देवता मानकर पूजता है, सागरदत्त जमीन से धन निकालते समय वृक्ष है । इतना ही नहीं आचार्य यह भी बतलाते हैं कि कौन-सा कार्य करने से व्यक्ति किस स्वर्ग जायेगा तथा किस नरक में । उसका शरीर कैसा होगा, सुख और दुःख की अनुभूति कितनी होगी इत्यादि अनेक कारण-कार्य के विधान इस ग्रन्थ में हैं, जो आनुष्ठानिक विचारणा नामक लोकतत्त्व का प्रभाव कहा जा सकता है ।
की पूजा करता
वास्तव में जैनदर्शन भले ज्ञान-मीमांसा पर विकसित हुआ हो, तत्त्वज्ञान में वह वैज्ञानिक भी हो, किन्तु कर्मसिद्धान्त के प्रतिपादन में वह लोक - मानस से जुड़ा है । अन्तर इतना है कि सामान्यतया लोक में धार्मिक अनुष्ठानों द्वारा फल की प्राप्ति आराध्य की कृपा पर निर्भर मान ली जाती हैं, जबकि जैनधर्म के अनुष्ठान व्यक्तिसापेक्ष हैं । व्यक्ति का प्रयत्न प्रत्येक कार्य के लिए एक ठोस कारण है । फिर भी दिव्य, अतिमानवीय एवं अतिप्राकृतिक शक्तियों का सहयोग प्राकृत साहित्य की कथाओं में अवश्य स्वीकारा गया है ।
४ - आत्मशीलता- - आदिम लोक-मानस समस्त सृष्टि को अपने सदृश स्वीकारता था । जड़ पदार्थों में भी वह आत्मा का अस्तित्त्व मानकर उन्हें अपने कार्यों में सहयोगी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org