Book Title: Proceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Author(s): K R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
________________
८४
न्तर संस्कृत (७,००-१,२०० ई.) क्षेत्रीय भाषाओं के रूप में वृद्धिंगत होती जा रही थी। प्रारम्भिक दो शताब्दियों में सम्पूर्ण भारतवर्ष में अनवच्छिन्न रूप से संस्कृत-प्राकृत में अभिलेख लिखे जाते रहे । ३,२० ई० में गुप्तकाल में संस्कृत सुस्थिर रूप से पाटलिपुत्र में प्रतिष्ठित थी । मथुरा के अभिलेखों से भी पता चलता हैं कि ईसा की प्रथम शताध्दी तक विशुद्ध प्राकृत का प्रचलन रहा है । दूसरी शताब्दी से संस्कृत में अभिलेख लिखे जाने लगे थे । छठी शताब्दी से उनका विशेष प्रचार हो गया था । फिर भी प्राकृतों का प्रभाव उन पर बराबर लक्षित होता है । यथार्थ में इस युग में प्राकृत और संस्कृत का विकास समानान्तर रूप से हुआ । संस्कृत का अनुसरण करती हुई प्राकृत भी साहित्यक आसन पर समासीन हथी । यद्यपि साहित्यकारों के द्वारा प्राकृतों को कृत्रिम रूप से भो ढाला गया पर प्राकृत अपना देशीपन नहीं छोड़ सकी। फिर भी, संस्कृस साहित्य की तुलना में प्राकृत का साहित्य किसी बात में न्यून प्रतीत नहीं होता । सभी प्रकार की साहित्यिक रचनाएं इस भाषा में लिखी हुयी मिलती हैं । आ. पाणिनि के युग के अनन्तर प्राकृतों में दो बातें विशेष रूप से लक्षित होती हैं -नये शब्दों का अधिग्रहण और प्राचीन संगीतात्मक स्वराघात की अपेक्षा बलात्मक स्वर संचार । इस प्रकार यह एक भारतीय आर्यभाषाओं की परवर्ती अवस्था एक संक्रमण की स्थिति को द्योतित करती है । इस अवस्था से ही भारतीय आर्यभाषाओं के विकास में एक नया मोड तथा तथा महान परिवर्तन लक्षित होने लगता है। अतएव इस अवस्था से हो कर ही नव्य भारतीय आर्यभाषाएं उत्पन्न होने की प्रक्रिया में बीजांकुर की भाँति परिलक्षित होती हैं । उन का उद्गम सहसा तथा अप्रत्याशित रूप से नहीं हुआ । तृतीय अवस्था
प्राचीन युग की प्राकृत ही अशोक के अभिलेखों की स्थिति से गुजरती हुयी लगभग दसवीं शताब्दी के मध्ययुगीन प्राकृत के रूप में मुख्यतः चार बोलियों में विभक्त की जा सकती है । पश्चिम में सिंध की घाटी में अपभ्रंश, दोआब में शौरसेनी, मथुरा में भी उस का केन्द्र था । इस के उपविभागों में गौर्जरो (गुजराती), अवन्ती (पश्चिमी राजस्थानी) और महाराष्टी (पूर्वी राजपूतानी) । प्राच्य प्राकृत मागधी और अर्धमागधी रूप में परिलक्षित होती है। अपश से सिंधी. पश्चिमी पंजाबी और कश्मोरी, शौरसेनी से पूर्वी पंजाबी और हिन्दी (जूनी अवन्ती) तथा गुजराती जबकि मागधी के दो रूपों में से मराठी और बंगाल की अन्य बोलियां निकली हैं । आधुनिक बोलियों के विकासोन्मुख होने का समय १,००० ई. है । अपने मौलिक अर्थ में "अपभ्रंश' का अर्थ है विपथगामी । पतंजलि ने इस का प्रयोग
१- एच. डी. सांकलिया : इण्डियाज लैंग्वेज, ई. पू. ३,००-१९६० ई. बुलेटिन पूना, दिस. १९६८, पृ० १६
२-वहीं, पृ. १३
३-ए. ए. मेक्डोनल : ए हिस्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर, पंचम संस्करण, १९५८, दिल्ली, पृ. २६
४-वहीं, पृ० २७
५-आर्थर ए. मे डानोल : ए हिस्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर, पंचम संस्करण, १९५८ पृ. १२७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
www.jainelibrary.org