Book Title: Proceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Author(s): K R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 214
________________ 113 रूप में प्राप्त होती है। लोकवार्ताओं का आदान-प्रदान मौखिक परंपरा या अन्य साधनों द्वारा पृथ्वी के एक कोने से दूसरे कोने में हुआ है उसका यह द्योतक है । भारतीय लोककथा-साहित्य का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अन्वेषण करनेवालों के लिए सुमतिनाथचरित्र और अन्य तीर्थ कर-चरित्र साहित्य एक अगाध अमूल्य निधि रूप है । यहाँ पर प्रस्तुत की गई चर्चा से इस बातका समर्थन हो जाता है । प्राचीन गुजराती में प्राप्त कथासामग्री का साम्य भी उस पर प्राकृत कथा-साहित्य के व्यापक प्रभाव का सूचक है । भाषा सामग्री : अनेक भाषा प्रयोग एवं शब्दप्रयोग 'सुमतिनाथचरित्र' की जैन महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में अनेक ऐसे प्रयोग हैं जो प्राचीन मध्यकालीन गुजराती भाषा के अभ्यास के लिए महत्त्वपूर्ण हैं । उनके कुछ उदाहरण देखिए : (१) अप्पडिसिद्धमणुमयं (२१३७)। अप्रतिषिद्ध को अनुमत कहा जाता है । (२) उच्चिद्रं पि हु भत्तं भक्खिज्जइ नेहलोहेण (१९३२) । मिष्टान्न के लोभ से लोग जूठा भी खा लेते हैं। (३) उवएसेण वि पायं नराण दुपरिच्चया पयई (२४२५) । उपदेश से भी मनुष्य की प्रकृति प्रायः बदली नहीं जा सकती । (४) एक्कं सुवन्नं अन्नं च सुरहि को न इच्छइ (३५९)। सोने और सुगंध को एक साथ कौन नहीं चाहता ? (५) एगत्थ वसइ अक्खंडपुन्नगुणनियलिया लच्छी (८२८)। अखंड पुण्य-गुण से बंधी हुई लक्ष्मी एक ही पुरुषके पास रहती है । (६) ओसहं विणा वाहि-विगमो (७७६)? क्या औषध के विना व्याधि हटती है ? (७) किं कूवु खणिज्जइ घरि पलित्ति (२२४०) ! क्या नब घर में आग लगती है तब दूंआ खोदा जाता है ! (८) खयम्मि खारो तए खित्तो (९१४)। घाव पर नमक डालने जैसी तेरी बात है । (९) खायई करंषयं जो सो सहइ विलंबयं पुरिसो (१५८)। जो आदमी करंबक (दध्योदन गुज. राज.-करबो) खाता है उसको विलंब सहना पडता है। ३. *अप्रचलित शब्दः(१) अंगुसेल (५७६) मेरु पर्वत (२) एक्किगा (८५२) मूत्र (३) कम्मणिज्ज (८५०) रसोई घर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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