Book Title: Proceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Author(s): K R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 217
________________ 176 सोमप्रभाख्यान और चारुदत्ताख्यानक नामक दो आरपान तथा देवचन्द्रसूरि रचित मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति ( ई. स. १०८९ अनु ) में सुल साख्यान नामक एक आख्यान एक एक संधिमें रचे गये संधि-काव्य हो हैं । संधिकाव्य का उद्भव इस तरह ११वों शताब्दी में ही हो चुका था । परन्तु बाद की रचनाओं पर तत्कालीन स्थानीय भाषाका प्रभाव बढता गया और हमने संधिकाव्यों की जो सूचि यहां पर दो हैं उन सबकी भाषा तत्कालीन लोकभाषा के प्रभाव से रंगी हुई अपभ्रंश भाषा है। हम उनमें प्राचीन गजर भाषाकी आद्य भूमिका की छाया देख सकते हैं । कतिपय प्रकाशित संधि काव्यों से एव विविध ज्ञानभंडारों के अद्यावधि प्रकाशित सूचिपत्रों की सहायता से उपलब्ध संधिकाव्यों की सूचि यहाँ पर प्रस्तुत की गई है - कर्ता रचना समय ई. स. ११८२ रत्नप्रभसूरि जिनप्रभसुरि ई. स. १२५० अनु० संधि १. ऋषभ-पारणक संधि २. वीर-पारणक ३. गजसुकुमाल ४. शालिभद्र ५. अवंतिसुकुमाल ,, ६. मदनरेखा ७. अनाथी मुनि ४. जीवानुशास्ति , ९. नर्मदासुदरी , १०. चतुरंग भावना " ११. आनंद श्रावक ,, १२. अंतरंग १३. केशो-गौतम १४. भावना १५. शील १६. उपधान १७. हेमतिलकसूरि ,. १८. तप १९. अनाथी महर्षि , २०. उपदेश विनयचन्द्र रत्नप्रभ गणि रत्नशेखरसूरि-शिष्य (१) जयदेव जयशेवरसूरि-शिष्य (3) ई. स. १३०० ई. स. १३२५ ई. स. १४०० पूर्व ई. स. १४००-१४५० अज्ञात विशालराजसूरि-शिष्य अज्ञात हेमसार ई. स. १५०० पूर्व १. देखिए 'शोध अने स्वाध्याय': डॉ. हरिवल्लभ भायाणी, १९६५, पृ० ३२-३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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