Book Title: Proceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Author(s): K R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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सबसे अधिक उलझन उत्पन्न की है, कवि श्रीधर के प्रमुख विशेषण 'विबुध' शब्द ने । वड्ढमाण चरिउ, वि० सं० ११०९, सुकुमालचरिउ वि० सं० १२०८ एवं भविसयत्त कहा वि० सं० १२३० की पुष्पिकाओ में कवि श्रीधर के नाम के साथ 'विबुध' विशेषण मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि ये तीनों कवि अभिन्न हैं ।
'पासणाह चरिउ' की पुष्पिका में यद्यपि कवि ने अपने को 'वुह सिरिहर' ही कहा है, 'विबुह सिरिहर' नहीं, जबकि "वड्ढमाण चरिउ'' के कर्ता विबुहश्रीधर से उसकी अभिन्नता सिद्ध है । दोनों रचनाओं में कवि के माता-पिता के नाम समान हैं ।
उक्त 'भविसयत्त कहा' एवं 'भविसयत्त चरिउ' के रचनाकाल में यद्यपि ३०० वर्षों का अन्तर है फिर भी उन दोनों के आश्रयदाता बिल्कुल एक समान हैं । यह एक
आश्चर्य का विषय है । इस विषय में गम्भीर शोध-खोज की आवश्यकता है। मेरी दृष्टि से उक्त दोनों ही रचनाओं में आश्रयदाता की वंशावली के सादृश्य को एक विशेष संयोग (accident) मात्र कहकर टाला नहीं जा सकता । ऐसा प्रतीत होता है कि लिपिक के प्रमाद अथवा भ्रम से रचनाकाल के उल्लेख में कहीं गड़बड़ी हुई है। चूंकि ये दोनों रचनाएँ मेरे सम्मुख नहीं हैं अतः इस दिशा में विशेष कह पाना शक्य नहीं । दोनों की प्रशस्तियों के अनुसार इन रचनाओं के आश्रयदाताओं का विवरण निम्न प्रकार है:भविसयत्त कहा [१२३० वि० सं०] | भविसयत्त चरिउ [१५३०वि० सं०] माथुरकुलीन श्रीनारायण [पत्नीरूपिणी] | माथुरकुलीन श्री.......[पत्नी माढ़ी]
सुपट्ट (वासुदेव के बड़े भाई )
साहारणु
णारायणु (रुप्पिणी)
पट्ट वासुदेव जसदेव लोहणु लक्खणु उक्त दोनों 'चनाओं के शीर्षक एवं प्रशस्ति-खण्डों के तुलनात्मक अध्ययन से निम्न तथ्य . सम्मुख आते हैं ।
१. कथावस्तु दोनों का एक है । दोनों ही रचनाएँ अपभ्रंश भाषा में हैं । किन्तु शीर्षक में कुछ परिवर्तन है-एक में भविसयत्त के साथ 'कहा' एवं दूसरे में 'चरिउ' शब्द संयुक्त है।
२. आश्रयदाता दोनों के एक हैं । अन्तर केवल इतना है कि एक में दो पीढियों का तथा दूसरी में तीन पीढ़ियों की चर्चा है ।
३. कवि का परिचय दोनों ही कृतियों में अनुपलब्ध है ।
४. 'भविसयत्त कहा' (वि० सं० १२३०) में कवि के लिए 'कवि' तथा 'विबध' ये दोनों विशेषण मिलते हैं तथा "भविसयत्त चरिउ” में विबुध के साथ-साथ (पुष्पिकामें) 'मुनि' विशेषण भी मिलता है।
उक्त समताओं को ध्यान में रखते हुए यदि ये दोनों रचनाएँ १२३० की सिद्ध हो सके तो 'वड्ढमाणचरिउ' एवं पासणाह चरिउ के कर्ता के साथ इनकी समता बैठाई जा
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