Book Title: Proceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Author(s): K R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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१४. प्राकृत तथा अपभ्रंश का ऐतिहासिक विकास डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री
प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं के विकास क्रम में प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं का महत्वपूर्ण योग रहा है । ये भाषाएं विभिन्न युगों में बोली तथा भाषाओं में होने वाले परिवर्तनों की संसूचक | डा० चटर्जी ने ठीक ही कहा है कि वैदिक शब्द या संस्कृत, प्राकृत और भाषा का प्रयोग संक्षिप्त और सुविधा के लिए तथा भारतीय आर्यभाषाओं की तीन अवस्थाओं के लिए किया गया है, और " प्राकृत" तथा "भाषा" के मध्य में संक्रमण • शील अवस्था जो कि प्राकृत या मभाआ की ही एक अंग थी, सुविधा की दृष्टि से अपभ्रंश कही जाती है' ।
प्राकृत शब्द का अर्थ और उसकी व्याप्ति
डा० जार्ज ग्रियर्सन, वाकरनागल, रिचर्ड पिशेल और प्रो० एन्टोने मैलेट प्राभृत भाषावैज्ञानिकों ने वैदिक युग की प्रादेशिक चोलियों के विकास से शिलालेखों की प्राकृत तथा साहित्यिक प्राकृतों का उद्भव एवं विकास माना है । वैदिक युग की प्राकृत बोलियों को प्राचीन या प्राथमिक प्राकृत (२,००० ई०पू० - ५,०० ई० पू० ) नाम दिया गया है । डा० ग्रियर्सन के शब्दों में अशोक (२५० ई. पू.) के शिलालेखों तथा महर्षि पतंजलि (१५० ई. पू.) के ग्रन्थों से यह ज्ञात होता है कि ई. पू. तोसरी शताब्दी में उत्तर भारत में आयकी विविध बोलियों से युक्त एक भाषा प्रचलित थी । जनसाधारण की नित्य व्यवहार की इस भाषा का क्रमागत विकास वस्तुतः वैदिक युग की बोलचाल की भाषा से हुआ था । इसके समानान्तर हो इन्हीं बोलियों में से एक बोली से ब्राह्मणों के प्रभाव द्वारा एक गौणभाषा के रूप में लौकिक संस्कृत का विकास हुआ। श्री पीटर्सन ने अपने लेख में बताया है कि प्राकृत वह संस्कृत है जिसे यहां के आदिवासी लोग अशुद्ध उच्चारण के रूप में बोलते थे । किन्तु जार्ज ग्रियर्सन उन से सहमत नहीं हैं । उनका स्पष्ट कथन है कि प्राकृत का अर्थ है-नैसर्गिक एवं अकृत्रिम भाषा । इसके विपरीत संस्कृत का अर्थ है- संस्कार की हुई तथा कृत्रिम भाषा । संस्कृत से प्राकृत सदा भिन्न रही है । प्राकृत बोल-चाल की भाषा थो । भाषा का स्वभाव आज भो प्राकृत है इसलिए उस के स्वभाव को प्रकृति कहते हैं ।
प्राकृत शब्द प्रकृति से निष्पन्न हुआ है । प्राकृत शब्द का मुख्य अर्थ स्वाभाविक है । प्राकृत लगभग तीन सहस्राब्दियों और उसके पूर्व की बोल-चाल की भाषा रही है । भाषा-विज्ञान में साहित्यिक भाषा को भाषा कहा जाता है । जिसमें कोई साहित्य रचना नहीं को जाती, जो केवल मौखिक रूप से प्रचलित रहती है उसे बोली कहते हैं । परम्परा
१ - चटर्जी, सुनीतिकुमार : द ओरिजन एन्ड डेवलपमेन्ट
२- ग्रियर्सन, सर जार्ज अब्राहम : भारत का भाषा सर्वेक्षण,
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आव द बेंगाली लैंग्वेज, कलकत्ता वि० वि०, १९२६, पृ०१७ अनु. -डा. उदयनारायण तिवारी, १९५९, पृ. २२४ से उद्धृत
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