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प्रमाणप्रमेयकलिका
तबतक हम न तो अपने ग्रन्थकार पूर्वाचार्योंके ऋणसे मुक्त हो सकते और न जैन-साहित्यको विद्वत्संसारमें वह उच्च आदरणीय स्थान प्राप्त करा सकते जिसका वह अपने गुणानुसार अधिकारी है। इस कार्यके लिए जैनभण्डारोंको पुनर्व्यवस्था व कार्य प्रणालीमें सुधारकी बड़ी आवश्यकता है । इस सबके लिए भी विद्वानों और श्रीमानोंका सहयोग वांछित है और उक्त कार्यकी पूर्ति हेतु इस ग्रन्थमालाका द्वार खुला हुआ है।
संयोगकी बात है कि इस ग्रन्थमालाका प्रारम्भ एक न्याय-विषयक ग्रन्थ 'लघीयस्त्रयादिसंग्रह' से हुआ था और उसके नये जीवनका आरम्भ भी पुनः एक न्याय-विषयक रचनासे हो रहा है। जैन दार्शनिक श्रीनरेन्द्रसेनने 'प्रमाण-प्रमेय-कलिका' नामक अपनी इस छोटी-सी रचनामें न्यायके प्रधान विषय प्रमाण और प्रमेयके सम्बन्धमें अन्य दार्शनिकोंके मतको पूर्व पक्षमें लेकर जैन दार्शनिक दृष्टिकोणका सुचारु रूपसे प्रतिपादन किया है। ग्रन्थका प्राक्कथन हिन्दू विश्वविद्यालय, काशीके दर्शन-विभागके अध्यक्ष पण्डित हीरावल्लभ शास्त्री द्वारा लिखा गया है जिससे विषयका अपेक्षित परिचय और प्रस्तुत ग्रन्थके अध्ययनकी अभिरुचि उत्पन्न हो । उसी विश्वविद्यालयके जैनदर्शन-प्राध्यापक पण्डित दरबारीलालजी कोठियाने ग्रन्थका विधिवत् सुसम्पादन किया है और अपनी आधारभूत प्राचीन प्रतियों तथा इस संस्करणकी विशेषताओंका परिचय आपने सम्पादकीयमें करा दिया है। प्रस्तावनामें आपने ग्रन्थ और ग्रन्थकारके सम्बन्धमें विस्तृत विचार किया है । इसके लिए हम उक्त दोनों साहित्यिकोंके कृतज्ञ हैं ।
इसके पश्चात् निकलनेवाला ग्रन्थ जैनशिलालेखसंग्रह भाग ४ भी तैयार हो रहा है। हमें आशा है कि विद्वानोंके सहयोगसे ग्रन्थमाला अविच्छिन्न रूपसे चलती हुई शीघ्र ही शतपुष्पमयी होनेका गौरव प्राप्त कर सकेगी।
हीरालाल जैन, श्रा० ने० उपाध्ये ग्रन्थमाला-सम्पादक
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