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प्रमाणप्रमेयकलिका
और प्रमेय क्या हैं ? जीवको दुःखोपरमरूप परमशान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है और उसका स्वरूप क्या है ? इत्यादि प्रश्नोंपर पूर्णतया प्रकाश डालनेवाला शास्त्र ही दर्शनशास्त्र कहा जाता है । यद्यपि 'दृश्यते यत् तद् दर्शनम्' इस व्युत्पत्तिसे सिद्ध 'दर्शन' शब्दका अर्थ दिखायी देनेवाला ज्ञेय पदार्थ भी है, तथापि करण व्युत्पत्तिसे सिद्ध 'दर्शन' ही यहाँ अभिप्रेत है । दर्शनौका विभाजन : आस्तिक और नास्तिक विचार :
इस दर्शनशास्त्र और उसके प्रतिपाद्य तत्त्वोंका मनन एवं चिन्तन करनेवाले मनीषी दार्शनिक कहे जाते हैं। यों तो समग्र विश्वमें, किन्तु विशेषतया भारतवर्ष में इन तत्त्वचिन्तक दार्शनिकोंको परम्परा सदा रही है । यह दार्शनिक परम्परा अनेक भेदोंमें विभक्त मिलती है। कुछ साम्प्रदायिक इस दार्शनिक-परम्पराको आस्तिक और नास्तिकके भेदसे दो भागों में विभाजित करते हैं और आस्तिकोंके दर्शनोंको आस्तिक दर्शन तथा नास्तिकोंके दर्शनोंको नास्तिक दर्शन बतलाते हैं। किन्तु उनका यह विभाजन सोपपत्तिक एवं संगत नहीं ठहरता। यदि 'अस्ति परलोकविषयिणी मतिर्यस्य स आस्तिकः, नास्ति परलोकविषयिणी मतिर्यस्य स नास्तिकः' इस प्रकार आस्तिक और नास्तिक शब्दोंका अर्थ किया जाये तो यह नहीं कहा जा सकता कि जैनदर्शन नास्तिक दर्शन है, क्योंकि इस दर्शनमें न्यायादिदर्शनोंकी तरह 'आत्मा परलोकगामी है, नित्य है, पुण्यपापादिका कर्ता-भोक्ता है' इत्यादि सिद्धान्त स्वीकृत ही नहीं, अपि तु जैन मान्यतानुसार जैन लेखकों-द्वारा उसका पुष्कल प्रमाणोंसे समर्थन भी किया गया है तथा जैन तीर्थकरों-द्वारा दिया गया उसका उपदेश भी अविच्छिन्नरूपेण अनादि कालसे चला आ रहा है। यदि यह कहा जाये कि 'आस्तिक दर्शन वे हैं जो वेदको प्रमाण मानते हैं और नास्तिक दर्शन वे हैं जो उसे प्रमाण स्वीकार नहीं करते-'नास्तिको वेदनिन्दकः ।' तो यह परिभाषा भी आस्तिक-नास्तिक दर्शनोंके निर्णयमें न सहायक है और न अव्यभि
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