Book Title: Pramanprameykalika
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Darbarilal Kothiya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 83
________________ प्रमाणप्रमेयकलिका प्रत्यक्ष से जब हमें जड़ और चेतन भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं और जड तथा चेतन भी देश, काल एवं आकारकी परिधिको लिये हुए अनेक मालूम पड़ रहे हैं तो उनका लोप कैसे किया जा सकता है ? तत्त्वकी व्यवस्था प्रतीतिके आधारपर होनी चाहिए । हाँ, सत्सामान्यकी दृष्टिसे वस्तु एक हो कर भी द्रव्य, गुण, पर्याय आदिके भेदसे वह अनेक है । अतः वस्तु कथंचित् एक और कथंचित् अनेकरूप है और यही कथंचित् एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक अथवा सामान्यविशेषात्मक वस्तु — प्रमेय है— प्रमाणका विषय है । प्रमाणप्रमेयकलिका में यही अनेकान्त दृष्टि प्रस्तुत की गयी है और सप्तभङ्गीप्रक्रियाद्वारा उसे सिद्ध किया गया है । ( उ ) वक्तव्यावक्तव्यतत्त्व- परीक्षा : बौद्ध तत्त्व ( स्वलक्षणात्मक वस्तु ) को अवक्तव्य मानते हैं । उनका कहना है कि विकल्प और शब्द दोनों ही अनर्थजन्य हैं और इसलिए वे अर्थको विषय नहीं करते हैं । उनके द्वारा तो केवल विवक्षा अथवा अन्यापोहमात्र कहा जाता है । अर्थ उनके द्वारा अभिहित नहीं होता । वह केवल निर्विकल्पक प्रत्यक्षका विषय है । शब्द अवस्तु है और अर्थ वस्तु । अतः अवस्तु और वस्तुमें क्या सम्बन्ध ? जब उनमें सम्बन्ध ही सम्भव नहीं है तब शब्दके द्वारा अर्थ ( स्वलक्षणात्मक तत्त्व ) कैसे वाच्य हो सकता है ? अतएव तत्त्व अवक्तव्य है । बौद्धोंकी यह मान्यता स्पष्टतया स्ववचन - बाधित है | जब तत्त्व अवक्तव्य है तो 'अवक्तव्य' शब्दके द्वारा भी उसका कथन नहीं किया जा सकता है । यदि उसे 'अवक्तव्य' शब्दके द्वारा 'अवक्तव्य' कहा जाता है तो वह 'अवक्तव्य' शब्दका वाच्य सुतरां हो जाता है । दूसरे, यदि शब्द अर्थका नहीं कहते — वे केवल अन्यापोहरूप सामान्यका ही प्रतिपादन करते हैं। तो बुद्धका समस्त उपदेश वस्तु प्रतिपादक न होनेसे मिथ्या ठहरता है और तब बुद्धके उपदेश तथा कपिलके उपदेश में कोई अन्तर नहीं रहता । तीसरे, यदि वस्तु और वस्तु-धर्म सभी अवक्तव्य हैं तो शब्दों का प्रयोग - ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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