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प्रमाणप्रमेयकलिका
तो इसका अद्वितीय प्रतिनिधि ग्रन्थ है। नरेन्द्र सेनने एकान्त-वादोंको समीक्षा करते हुए अनेकान्तवादकी अतिसंक्षेपमें सुन्दर स्थापना की है और इस तरह उन्होंने पूर्वपरम्पराका विशदीकरण करके उसका समर्थन किया है। इस तरह यह ग्रन्थका आभ्यन्तर प्रमेय-परिचय है।
२. ग्रन्थकार (क) ग्रन्थकर्ताका परिचय :
ग्रन्थके बाह्य और आभ्यन्तर स्वरूपपर विचार करने के बाद अब उसके कर्ताके सम्बन्धमें विचार किया जाता है ।
ग्रन्थके अन्तमें एक समाप्ति-पुष्पिका-वाक्य उपलब्ध होता है और जो इस प्रकार है :
'इति श्रीनरेन्द्रसेनविरचिताप्रमाणप्रमेयकलिका समाप्ता।'
इस पुष्पिका-वाक्यमें इस रचनाको 'श्रीनरेन्द्रसेन-द्वारा रचित' स्पष्ट बतलाया गया है। अतः इतना तो निश्चित है कि इसके कर्ता श्रीनरेन्द्रसेन हैं। अब केवल प्रश्न यह रह जाता है कि ये नरेन्द्रसेन कौन-से नरेन्द्रसेन हैं और उनका समय, व्यक्तित्व एवं कार्य क्या है, क्योंकि जैन साहित्यमें नरेन्द्रसेन नामके अनेक विद्वानोंके उल्लेख मिलते हैं। (ख) नरेन्द्रसेन नामके अनेक विद्वान् :
१. एक नरेन्द्रसेन तो वे हैं, जिनका उल्लेख आचार्य वादिराजने किया है। वह उल्लेख निम्न प्रकार है:
विद्यानन्दमनन्तवीर्य-सुखदं श्रीपूज्यपादं दयापालं सन्मतिसागरं कनकसेनाराध्यमभ्युद्यमी । शुद्धयनीतिनरेन्द्रसेनमकलकं वादिराजं सदा . श्रीमत्स्वामिसमन्तमद्रमतुलं वन्दे जिनेन्द्रं मुदा ॥
-न्यायवि. वि. अन्तिम प्रशस्ति. श्लोक २ । इन नरेन्द्रसेनके बारेमें इस प्रशस्ति-पद्य या दूसरे साधनोंसे कोई विशेष
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