Book Title: Pramanprameykalika
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Darbarilal Kothiya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 88
________________ प्रस्तावना आचार्यनामनिरतोऽत्र नरेन्द्रसेनस्तेनेदमागमवचो विशदं निबद्धम् ॥ -सिद्वान्तसा० प्रश० श्लोक ९३, ९५ । इन उल्लेखोंमें इन नरेन्द्रसेनने अपनेको वीरसेनका प्रशिष्य और गुणसेनका शिष्य बतलाया है। पर इन्होंने अपने समयका कोई कहीं निर्देश नहीं किया। हाँ, जयसेनके धर्मरत्नाकरके आधारपर इनका अस्तित्व-काल विक्रमकी १२वीं शताब्दी ( ११५५-११८०) समझा जाता है, क्योंकि जयसेनके धर्मरत्नाकरकी प्रशस्तिमें दी गयी गुर्वावली तथा नरेन्द्रसेनके सिद्धान्तसारसंग्रहको प्रशस्तिमें उल्लिखित गुर्वावली दोनों प्रायः समान हैं। और उनसे ज्ञात होता है कि ये दोनों आचार्य एक ही गुरुपरम्परामें हुए हैं और नरेन्द्रसेन जयसेनकी चौथी पीढ़ीके विद्वान् हैं। वे दोनों गुर्वावली यहाँ दी जाती हैं : धर्मरत्नाकरमें उल्लिखित गुर्वावली धर्मसेन शान्तिषेण. गोपसेन भावसेन जयसेन १. देखिए, प्रश. सं. प्रस्ता . पृ. ५३ तथा सिं. सा. सं. प्रस्ता . पृ. ९। २. जयसेनने धर्मरत्नाकरका रचना-काल इसी ग्रन्थमें निम्न प्रकार दिया है : बाणेन्द्रिय -व्योम -सोम-मिते ( १०५५) संवत्सरे शुभे । ग्रन्थोऽयं सिद्धतां यातः सब(क)लीकरहाटके ॥ ३. देखिए, प्रशस्तिसं० पृ. ३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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