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प्रमाणप्रमेयकलिका
ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जो 'कलिकान्त' रचे गये हैं; जैसे जयन्त भट्टकी न्यायकलिका, राजशेखरको स्याद्वादकलिका , जिनदेवको कारुण्यकलिका', पादलिप्ताचार्यको निर्वाणकलिका, कवि ठाकुरकी महापुराणकलिका आदि। जान पड़ता है कि नरेन्द्रसेनने अपनी प्रस्तुत कृतिका भी नाम इन ग्रन्थोंको ध्यान में रखकर 'प्रमाणप्रमेयकलिका' रखा है। उसका यह यथार्थ गुणनाम है
और वह ग्रन्थके पूर्णतः अनुरूप है । (ग) भाषा और रचना-शैली : ... यद्यपि न्याय-ग्रन्थोंकी भाषा कुछ जटिल और दुरूह रहती है, पर इसकी भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है। बीच-बीच में कहीं महाविरों, न्याय-वाक्यों और विशेष-पदोंका भी प्रयोग किया गया है और उनसे रचनामें सौष्ठव एवं वैशिष्ट्य आ गया है। उदाहरणार्थ विषयको लोक-प्रसिद्धि बतलानेके लिए दो स्थलोंपर 'श्रा-विद्वदङ्गना-सिद्ध' इस मुहाविरेका प्रयोग किया गया है। योगदृष्टिसमुच्चयमें भी आचार्य हरिभद्र ने इस मुहाविरेका निम्न प्रकार प्रयोग किया है : - १. इसका भी उल्लेख उक्त 'जैन ग्रन्थावली' पृष्ठ ८१, वर्ग २ में २१ नं० पर किया गया है और वह 'राजशेखर ( १२१४ )' की रचना बतलाई गई है तथा उसमें ४० कारिकाओं एवं ४ पत्रोंके होनेका निर्देश है। यह भी अप्रकाशित है।
२. यह लेखकके द्वारा सम्पादित तथा अनूदित 'न्यायदीपिका' पृष्ठ १११ तथा प्रो० महेन्द्रकुमारजीके 'जैन दर्शन' पृष्ठ ६२८ पर उल्लिखित है।
३. यह नित्यकर्म, दीक्षा, प्रतिष्ठा, प्रतिष्ठापद्धति आदिका वर्णन करनेवाली 'मुनि मोहनलाल जैन ग्रन्थमाला बम्बई' से प्रकाशित एक कर्मकाण्डविषयक जैन रचना है।
४. इसका निर्देश ‘अनेकान्त' वर्ष १३, किरण ७,८ में है और यह अभी प्रकाशित नहीं हुई है।
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