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प्रमाणप्रमेयकलिका समय अपनी सत्ताको भी खो देते हैं। और जब उनकी अपनी सत्ता ही नहीं रहती, तब तत्त्वोपप्लव या शून्य तत्त्वका साधन कौन करेगा ? दूसरी बात यह है कि जब किसी निर्णीत वस्तुको स्वीकार ही नहीं किया जातासभी विषयों में विवाद है तो किसी भी विषयपर-यहाँतक कि उनके अभिमत तत्त्वोपप्लव या शून्य तत्त्वपर भी विचार नहीं किया जा सकता।
कितने ही चिन्तक तत्त्वकी सत्ताको स्वीकार करके भी उसे अवक्तव्य शब्दाद्वैत, ब्रह्माद्वैत, विज्ञानाद्वैत, चित्राद्वैत आदिके कटघरेमें बन्द कर लेते हैं और उसकी सिद्धिके लिए एड़ीसे चोटीतक पसीना बहाते हैं। पर ये चिन्तक भी यह भूल जाते हैं कि तत्त्व जब सर्वथा अवक्तव्य है तो शब्दप्रयोग किसलिए किया जाता है और उसको किये बिना दूसरोंको उसका बोध कैसे कराया जा सकता है ? उस हालतमें तो केवल मौन ही अवलम्बनीय है। तथा जो उसे सर्वथा अद्वैत-एक मानते हैं वे साध्य-साधनका द्वैत माने बिना कैसे अपने अभिमत 'अद्वैत' तत्त्वकी स्थापना कर सकते हैं,
१. 'तदिमे तत्त्वोपप्लववादिनः स्वयमेकेन केनचिदपि प्रमाणेन स्वप्रसिद्धेन वा सकलतत्त्वपरिच्छेदकप्रमाणविशेषरहितं सर्व पुरुषसमूह संविदन्त एवात्मानं निरस्यन्तीति व्याहतमेतत्, तथातत्त्वोपप्लववादित्वव्याघातात् ।'-अष्टस. पृ. ३७ तथा पृ० ४२ । २. किञ्चिनिर्णीतमाश्रित्य विचारोऽन्यत्र वर्तते ।
सर्वविप्रतिपत्तौ तु क्वचिन्नास्ति विचारणा ।।-अष्टस० पृ० ४२ । ३. सर्वान्ताश्चेदवक्तव्यास्तेषां किं वचनं पुनः । संवृतिश्चेन्मृषैवेषा परमार्थ-विपर्ययात् ॥
-आप्तमी० का० ४९ । ४. अशक्यादवाच्यं किमभावात्किमबोधतः । आद्यन्तोक्तिद्वयं न स्यात् किं व्याजेनोच्यतां स्फुटम् ॥
-आप्तमी० का० ५० ।
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