Book Title: Pramanprameykalika
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Darbarilal Kothiya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 57
________________ प्रमाणप्रमेयकलिका उसीका अज्ञान दूर होता है, वही अहितको छोड़ता है, हितका उपादान करता है और उपेक्षणीयकी उपेक्षा करता है। इस प्रकार एक अन्वयि आत्माको दृष्टि से प्रमाण और फलमें कथंचित् अभेद है और प्रमाताका अर्थपरिच्छित्तिमें साधकतम रूपसे व्याप्रियमाण स्वरूप प्रमाण है तथा अर्थपरिच्छित्तिरूप प्रमिति उसका फल है। अतः इनमें पर्यायदृष्टिसे कथंचित् भेद है । यहाँ उल्लेखनीय है कि सांख्य आदि, इन्द्रियवृत्ति आदिको प्रमाण और ज्ञानको उसका फल स्वीकार करके उन ( प्रमाण तथा फल ) में सर्वथा भेद ही मानते हैं और बौद्ध ( बाह्य अर्थका अस्तित्व स्वीकार करनेवाले सौत्रान्तिक एवं ज्ञानमात्रको माननेवाले विज्ञानवादी क्रमशः ) ज्ञानगत अर्थाकारता या सारूप्यको और ज्ञानगत योग्यताको प्रमाण तथा विषयाधिगति एवं स्ववित्तिको फल मानकर उनमें सर्वथा अभेदका प्रतिपादन करते हैं। पर जैनदर्शनमें सर्वथा भेद और सर्वथा अभेदको प्रतीतिबाधित बतलाकर अनेकान्तदृष्टिसे उनका कथन किया गया है, जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं। नरेन्द्रसेनने भी प्रमाण-फलके भेदाभेदकी चर्चा की है और उन्हें कथञ्चिद् भिन्न तथा कथञ्चिद् अभिन्न सिद्ध किया है। (ऐ) ज्ञानके अनिवार्य कारण : अब प्रश्न है कि ज्ञानके अनिवार्य कारण क्या हैं ओर वे कौन हैं ? इस सम्बन्धमें सभी ताकिकोंने विचार किया है। बौद्ध अर्थ और आलोकको भी ज्ञानके प्रति कारण मानते हैं। उनका कहना है कि सब ज्ञान चार (ख) 'प्रमाणादमिन्नं भिन्नं च।'-परीक्षामु० ५-२ । १. 'यः प्रमिमीते स एव निवृत्ताज्ञानी जहात्यादत्ते उपेक्षते चेति प्रतीतेः ।'-परीक्षामु० ५-३ । २. देखिए, प्रमाणपरी० पृ० ७८ । ३. देखिए, तत्वसं. का. १३४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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