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प्रस्तावना
(आ) विशेष परीक्षा :
का कहना है कि एक, नित्य, व्यापक और परमार्थसत् सामान्य, चाहे वह प्रधानरूप हो, या परमपुरुषरूप, हमें प्रत्यक्ष से प्रतीत नहीं विशेषवादी बौद्धोंका होता । जो प्रतीत होते हैं वे हैं विशेष — एक-एक, पूर्व पक्ष पृथक्-पृथक् अनेक और अनित्य व्यक्तियाँ | हम स्पष्ट देखते हैं कि कोई घट है, कोई पट है, कोई पुस्तक है, कोई लकड़ी है, कोई पत्थर है, कोई गाय है, कोई आदमी है, इस तरह संसारकी सभी वस्तुएँ पृथक्-पृथक् व्यक्तिरूपमें ही प्रतीत होती हैं । 'जो जहाँ और जिस कालमें है वह वहीं और उसी काल में पाया जाता है, अन्य देश या अन्य कालमें नहीं | और इसलिए दो भिन्न देशों और दो भिन्न कालोंमें व्यापक कोई भी पदार्थ नहीं है ।' यदि भिन्न देशों और भिन्न कालोंमें रहनेवाला एक सामान्य पदार्थ माना जाय तो यह बतायें कि वह सामान्य प्रत्येक व्यक्ति में पूर्णरूपसे रहता है अथवा आंशिक ? यदि पूर्णरूपसे रहता है, तो या तो दूसरे अन्य व्यक्तियों में उसका अभाव मानना पड़ेगा, या व्यक्तियोंकी तरह उसे भी अनन्त मानना होगा । यदि वह उनमें आंशिक रूपसे रहता है तो वह निरंश और नित्य नहीं रहेगा । अतः बुद्ध्यभेदको छोड़कर भिन्न सामान्य नहीं है । यह बुद्ध्यभेद भी अन्यापोहरूप है । अगोव्यावृत्तिसे गौका व्यवहार, अघटव्यावृत्ति से घटका व्यवहार और अपटव्यावृत्तिसे पटका व्यवहार होता है । गोत्व, घटत्व, पटत्व आदिरूप सामान्यको अपेक्षासे नहीं ।
ये विशेष ही स्वलक्षण हैं, जो चित्त और अचित्त दोनों रूप हैं तथा
१. 'यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव सदैव सः । न देशकालयोर्व्याप्तिर्भावानामिह विद्यते ॥ ' २. 'एकत्र दृष्टो भावो हि कचिनान्यत्र दृश्यते । तस्मान्न भिन्नमस्त्यन्यत्सामान्यं बुद्धयभेदतः ॥ '
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