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प्रमाणप्रमेयकलिका
परस्पर भेद-व्यवहार करानेवाला विशेष है । और अयुतसिद्धों में होने वाले सम्बन्धका नाम समवाय है । इसी तरह सबके कारण भिन्न हैं, अर्थक्रिया सबकी जुदी है और कार्य भी सबके अलग-अलग हैं । अतः ये छह ही पदार्थ हैं और परस्पर सर्वथा भिन्न हैं ।
इन छह पदार्थों में द्रव्य, गुण और कर्म ये तीन पदार्थ व्यक्ति -- विशेष रूप हैं | सामान्य स्वयं सामान्य (जाति) रूप है । अन्य दर्शनोंमें अस्वीकृत एवं इस वैशेषिक दर्शन में स्वीकृत विशेष विशेषरूप है ही और समवाय इन सबके सम्बन्धका स्थापक है । इस तरह वैशेषिकोंके ये छह पदार्थ सामान्य और विशेषरूप होने के कारण उन्हें सामान्य-विशेषोभयवादी तथा उनके इस वादको सामान्यविशेषोभयबाद कहा गया है ।
जैन दर्शनमें उनके इस स्वतन्त्र सामान्यविशेषोभयवादपर सभी जैन दार्शनिक लेखकोंने विचार किया है और उन्हें इसमें भी दोष जान पड़े हैं । जैनोंका पहली बात तो यह है कि जो दोष एकान्ततः सामान्यवाद उत्तर पक्ष और विशेषवादके स्वीकार करने में दिये गये हैं वे सब स्वतन्त्र उभयवादके माननेमें भी प्राप्त हैं ।
दूसरे, सब प्रकार से वस्तुको सामान्यरूप मान लेनेपर फिर वह सब प्रकारसे विशेषरूप स्वीकार नहीं की जा सकती और सब प्रकार से विशेष रूप स्वीकर कर लेनेपर वह सर्वथा सामान्यरूप नहीं मानी जा सकती और इस तरह स्वतन्त्र उभयवाद व्यवस्थित नहीं होता ।
तीसरे, प्रत्ययभेदसे यदि पदार्थभेद स्वीकार किया जाय तो 'घटः, पटः, कटः' इत्यादि अनन्त प्रत्यय होनेसे घटपटादिको भी पृथक्-पृथक् अनन्त पदार्थ मानना पड़ेगा । अतः प्रत्ययभेद पदार्थ-भेदका नियामक नहीं है | जो अपने अस्तित्वको दूसरे में नहीं मिलाता, और स्वतन्त्र है वही स्वतन्त्र और भिन्न पदार्थ मानने योग्य है । यथार्थ में गुण-कर्मादि द्रव्यके विभिन्न धर्म अथवा परिणमन मात्र हैं, वे स्वतन्त्र पदार्थ नहीं हैं । वे द्रव्य के साथ ही उपलब्ध होते हैं, द्रव्यको छोड़कर नहीं और
दूसरेके आश्रित नहीं रहता
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