Book Title: Pramanprameykalika
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Darbarilal Kothiya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 77
________________ प्रमाणप्रमेयकलिका समवायके सिद्ध न होनेपर 'इस द्रव्यका यह गुण है' यह व्यपदेश नहीं बन सकता । इसी तरह द्रव्य में द्रव्यका व्यपदेश भी द्रव्यत्वके समवायसे माननेपर वैशेषिकों को समवायके होनेसे पहले द्रव्यका क्या स्वरूप है, यह स्पष्ट करना आवश्यक है । यदि कहा जाय कि द्रव्य ही द्रव्यका स्वरूप है तो यह कथन अयुक्त है, क्योंकि 'द्रव्य' संज्ञा द्रव्यत्वके समवायसे होने के कारण वह उसका स्वरूप नहीं हो सकती । अगर कहा जाय कि द्रव्यका सत्त्व ही द्रव्यका निज स्वरूप है तो सत्त्वका भी सत्त्व नाम सत्ताके समवायसे माना गया है, अतः सत्त्वका भी सत्तासमवायसे पूर्व क्या स्वरूप है, यह प्रश्न उठता है, जिसका कोई समाधान वैशेषिकोंके यहाँ नहीं है । क्योंकि सत्त्वको स्वयं सत् माननेपर सत्ता समवाय निरर्थक है और उसे स्वयं असत् स्वीकार करनेपर खरविषाणादिकी तरह उसमें सत्ता समवाय सम्भव नहीं है। इस तरह द्रव्यका अपना कोई स्वरूप नहीं बनता । इसी तरह गुण और कर्मके सम्बन्धमें भी जानना चाहिए । सामान्य, विशेष और समवाय ये तीन पदार्थ ही स्वरूपसत् होनेसे सत् कहे जा सकते हैं । और इस प्रकार तीन पदार्थोंकी ही व्यवस्था बनती है । १ ४० 1 पर ये तीन पदार्थ भी स्वतन्त्र और पृथक् सिद्ध नहीं होते । जहाँतक सामान्यका प्रश्न है वह एक-सी नानाव्यक्तियोंमें पाया जाने वाला भूय:साम्य या सदृश परिणमनके अतिरिक्त अन्य नहीं है । समान व्यक्तियोंमें जो अनुगत व्यवहार होता है वह इसी भूयः साम्य या सदृश परिणमनके कारण होता है । जिनकी अवयव रचना समान है उनमें 'गौरयम्, गौरयम्', 'अश्वोऽयम्, अश्वोऽयम्', 'घटोऽयम्, घटोऽयम्' इत्यादि अनुगताकार प्रत्यय तथा व्यवहार होता है । यह सब व्यवहार लोकसंकेतपर आधारित है । लोगों ने जिसे समान रचनाके आधारपर 'गौ' या 'अश्व' या 'घट' का संकेत कर रखा है, उस समान रचनाको देखकर लोग उन शब्दों का प्रयोग या व्यवहार करते हैं । 'गौ' आदिमें 'गोत्व' आदि कोई ऐसा सामान्य पदार्थ नहीं है जो १. देखिए, प्रमेय रत्नमाला पृ० १६८ तथा आप्तपरीक्षा पृ० १७,१२७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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