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प्रस्तावना
। वह अनुमान यह है - 'ग्राम, उद्यान आदि पदार्थ प्रतिभास के अन्तर्गत हैं, क्योंकि वे प्रतिभासमान होते हैं । जैसे प्रतिभासका अपना स्वरूप ।' और प्रतिभास स्वयं परमब्रह्म है । आगम - वाक्य भी उसीके प्रतिपादक हैं । उनमें स्पष्टतया कहा गया है कि 'जो हो चुका, हो रहा है और होगा, वह सब पुरुष (परमब्रह्म) ही है ।" जिस प्रकार विशुद्ध आकाशको तिमिररोगी अनेक प्रकारकी चित्र-विचित्र रेखाओंसे खचित और चित्रित देखता है उसी तरह अविद्या के कारण यह निर्मल एवं निर्विकार ब्रह्म अनेक प्रकारके देश, काल और आकारके भेदोंसे युक्त, कलुषताको प्राप्तकी तरह प्रतीत होता है।
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यही ब्रह्म समस्त विश्वकी उत्पत्ति में उसी तरह कारण है जिस तरह मकड़ी अपने जालेमें, चन्द्रकान्तमणि जलमें और वट अपने विभिन्न प्ररोहोंमें कारण होते हैं । जितने भेदात्मक परिणमन दिखायी देते हैं उन सबमें उसी प्रकार सद्रूपका अन्वय विद्यमान है जिस प्रकार घट, घटी, सराव आदि मिट्टी के परिणामों में मिट्टीका अन्वय स्पष्ट देखा जाता है । अतः परमब्रह्म ही प्रमाणका विषय है— प्रमेय है ।
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१. 'पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।'
- ऋक् सं० म० १० सू० ८०, ऋ०२ २. 'यथा विशुद्ध माकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । संकीर्णमित्र मात्राभिश्चित्राभिरभिमन्यते ॥ तथेदममलं ब्रह्म निर्विवारमविद्यया । कलुषत्वमिवापनं भेदरूपं प्रपश्यति ॥ '
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३. 'ऊर्णनाभ इवांशूनां चन्द्रकान्त इवाम्भसाम् । प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मिनाम् ॥'
- बृहदा० भा० वा० ३, ५, ४३-४४ ।
- उष्टत प्रमेयक० पृ० ६५ ।
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