Book Title: Pramanprameykalika
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Darbarilal Kothiya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 69
________________ ३२ प्रमाणप्रमेयकलिका ये दोनों भी क्षणिक एवं परमाणुरूप हैं । ये ही प्रत्यक्षका विषय तथा अर्थक्रियासमर्थ होनेसे परमार्थसत् हैं । इनसे विपरीत सामान्यलक्षण है । ये स्वलक्षणात्मक विशेष परस्पर में असंसृष्ट हैं और अत्यन्त निकटवर्ती हैं । इनमें हमें स्थिरता और स्थूलताका भ्रम होता है । पर वास्तवमें वे प्रतिक्षण विनश्वर और सूक्ष्मस्वभाव हैं । उन्हें अपने विनाशमें किसी अन्य कारणकी अपेक्षा नहीं होती । जिन कारणोंसे उनकी उत्पत्ति होती है उन्हीं से उनका विनाश होता है और इसलिए उत्पत्ति के कारणोंसे अतिरिक्त कारण न होनेसे विनाशको निर्हेतुक माना गया है । प्रत्येक पूर्वक्षण उत्तरक्षणको उत्पन्न करता है और स्वयं विनष्ट हो जाता है । इस तरह पूर्वोत्तरक्षणोंकी सन्ततिमें कार्य कारणभाव आदिकी व्यवस्था है । पूर्वक्षण कारण है तो उत्तरक्षण कार्य है । 3 यहाँ प्रश्न हो सकता हैं कि परमाणुओंका परस्पर में संसर्ग क्यों सम्भव नहीं है ? वे असंसृष्ट ही क्यों हैं ? इसका उत्तर यह है कि एक परमाणुका दूसरे परमाणु के साथ यदि सर्वात्मना संसर्ग हो तो दो परमाणु मिलकर एक हो जायेंगे । फलतः सब परमाणुओंका पिण्ड केवल एक परमाणुका ही प्रचय होगा; क्योंकि दूसरे सब परमाणु उसी एक परमाणुके १. 'तस्य विषयः स्वलक्षणम् । ', ' यस्यार्थस्य संनिधानासंनिधानाभ्यां ज्ञानप्रतिभासभेदस्तत्स्वलक्षणम् ।', 'तदेव परमार्थसत् ।', 'अर्थक्रियासामर्थ्य लक्षणत्वाद्वस्तुनः ।' - न्यायबि० पृ. १८ । २. ‘अन्यत्सामान्यलक्षणम् |' - न्यायवि० पृ० १८ | " ३. ' स च संसर्गः सर्वात्मना न सम्भवति एव, एकपरमाणुमात्रप्रचयप्रसंगात् । नाऽप्येकदेशेन दिग्भागभेदेन षड्भिः परमाणुभिरेकस्य परमाणोः संसृज्यमानस्य षडंशतापत्तेः, तत एवासंसृष्टाः परमाणवः प्रत्यक्षेणोपलभ्यन्त इति । - आप्तप० पृ० १७६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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