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प्रस्तावना
(ऊ) प्रमाणका फल :
अब ज्ञान प्रमाणवादी जैनोंके सामने प्रश्न आया कि यदि ज्ञानको प्रमाण माना जाता है तो उसका फल क्या है, क्योंकि अर्थाधिगम प्रमाणका फल है और उसे प्रमाण मान लेनेपर उसका अन्य फल सम्भव नहीं है ? इस प्रश्नका समाधान करते हुए जैन तार्किकोंने कहा है कि अर्थाधिगम होनेपर ज्ञाताको उस ज्ञेय ( अर्थ ) में प्रीति होती है और वह प्रीति उस ( प्रमाण ) का फल है । निश्चय ही यदि वह अर्थ ग्रहण करने योग्य होता है तो उसमें ज्ञाताकी उपादान-बुद्धि, छोड़ने योग्य होता है तो हेयबुद्धि और उपेक्षणीय होता है तो उपेक्षा बुद्धि होती है । अतः ज्ञानको प्रमाण माननेपर उसका फल हान, उपादान और उपेक्षा है । परम्परा फल है और साक्षात् फल उसका अज्ञान- नाश है । उस अर्थके विषय में जो ज्ञाताको अन्धकार- सदृश अज्ञान होता है वह उस अर्थका ज्ञान होनेपर दूर हो जाता है । वात्स्यायनने भी ज्ञानको प्रमाण स्वीकार करते हुए उसका हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धि फल बतलाया है । (ए) प्रमाण और फलका भेदाभेद :
यह उसका
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जैन परम्परामें एक ही आत्मा प्रमाण और फल दोनों रूपसे परिणमन करनेवाला स्वीकार किया गया है । अतः एक प्रमाताकी अपेक्षा प्रमाण और फलमें अभेद तथा कार्य और कारणरूपसे पर्याय-भेद या करण और क्रियाका भेद होनेके कारण उनमें भेद माना गया है । जिसे प्रमाण- ज्ञान होता है
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१. देखिए, इसी पुस्तकके पृष्ठ १८ का पादटिप्पण तथा सर्वार्थसि० १ - १० की व्याख्या |
२. देखिए, न्यायभा० १-१-३ । तथा इसी ग्रन्थकी प्रस्तावना पृ० १७ का टिप्पण |
३. ( क ) ' प्रमाणात्कथंचिद्भिन्नाभिन्नं फलमिति । प्रमाणपरी० पृ०
७९-८० ।
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