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प्रमाणप्रमेयकलिका
का यथोचित योगदान होता है । इनमें से यदि एककी भी कमी रहे तो अर्थोपलब्धि नहीं हो सकती । अतः सामग्री अथवा कारकसाकल्य ( कारकोंकी समग्रता ) प्रमाण है ।
परम्परा कारण है । एक मात्र ज्ञान ही
जैन तार्किकों का कहना है कि प्रमाके प्रति जो करण है वही प्रमाण है और करण वह होता है जो अव्यवहित एवं असाधारण कारण है । सामग्री अथवा कारकसाकल्यके अन्तर्गत वे सभी कारण सम्मिलित हैं जो साधारण और असाधारण, व्यवहित और अव्यवहित दोनों हैं । ऐसी स्थिति में सामग्री या कारकसाकल्यको प्रमाण मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता । ध्यान रहे कि इन्द्रियादि सामग्री ज्ञानकी उत्पत्ति में तो साक्षात् कारण है, पर अर्थोपलब्धिरूप प्रमामें वह साक्षात् कारण नहीं है, साक्षात् कारण तो उसमें उक्त सामग्रीसे उत्पन्न हुआ है । अथवा, यों कहना चाहिए कि उक्त सामग्री मात्र ज्ञानको उत्पन्न करती है, वह सीधे अर्थोपलब्धि में व्यापृत नहीं होती । अतः उक्त सामग्री जब ज्ञानसे व्यवहित हो जाती है तो वह अर्थोपलब्धिमें अव्यवहित कारण— साधकतम नहीं कही जा सकती । यदि परम्परा कारणोंको भी साधकतम ( करण ) माना जाय तो उनका न कोई प्रतिनियम रहेगा और न कहीं विराम ही होगा । अतः कारकसाकल्य या सामग्री प्रमाणका स्वरूप नहीं है । नरेन्द्रसेनने अनेक विकल्प उठाकर इसकी विशद मीमांसा की है । (ई) सन्निकर्ष - परीक्षा :
योगोंकी मान्यता है कि ज्ञाताका व्यापार, इन्द्रियोंका व्यापार और कारकसाकल्य अर्थपरिच्छित्ति में तबतक कुछ भी सक्रिय योगदान नहीं कर सकते, जबतक इन्द्रियोंका योग्य देश में स्थित अर्थके साथ सम्बन्ध न हो । इस सम्बन्ध के होनेपर ही ज्ञाताको अर्थप्रमिति होती है । अतः इन्द्रिय और पदार्थका सम्बन्धरूप सन्निकर्ष ही प्रमाण है, इन्द्रियव्यापारादि नहीं ।
१. देखिए, प्रमेयक० मा० पृ० ८ ।
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