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प्रस्तावना
प्रमाणप्रमेयकलिकामें नरेन्द्रसेनने भी तत्त्व-सामान्यकी जिज्ञासा करते हुए उसे नाम-सिद्ध मानकर उसके विशेषों-प्रमाण और प्रमेय तत्त्वोंपर संक्षेपमें मीमांसा उपस्थित की है। ३. प्रमाणतत्त्व-परीक्षा:
तत्त्व, अर्थ, वस्तु और सत् ये चारों पर्याय शब्द हैं । जो अस्तित्व स्वभाववाला है वह सत् है और तत्त्व, अर्थ तथा वस्तु अस्तित्व-स्वभावकी सीमासे बाहर नहीं हैं-वे तीनों भी अस्तित्ववाले हैं। इसलिए सत्का जो अर्थ है वही तत्त्व, अर्थ और वस्तुका है और जो अर्थ इन तीनोंका है वही सत्का है। निष्कर्ष यह कि ये चारों समानार्थ हैं। जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं कि तत्त्व दो समूहोंमें विभक्त है । वे दो समूह हैं-१. उपाय और २. उपेय । उपायतत्त्व दो प्रकार है-१. ज्ञापक (प्रमाण ) और २. कारक ( कारण )। उपेयतत्त्व भी दो तरहका है--१. ज्ञाप्य ( ज्ञेय-प्रमेय ) और २. कार्य ( उत्पन्न होनेवाली वस्तुएँ )। इनमेंसे यहाँ ज्ञापक (प्रमाण ) और ज्ञाप्य ( प्रमेय ) ये दो ही चर्चाका विषय अभिप्रेत हैं । अन्य तार्किकोंने भी इनपर विचार किया है और उनके स्वरूप निर्धारित किये हैं। साथ ही प्रमाणको व्यवस्थापक तथा प्रमेयको व्यवस्थाप्यके रूपमें स्वीकार किया है। प्रकृतमें देखना है कि उनके वे स्वरूप युक्तिसंगत हैं या नहीं ? यदि नहीं तो उनके युक्तिसंगत स्वरूप क्या हैं ? (अ) ज्ञातृव्यापार-परीक्षा :
सर्वप्रथम प्रमाणके स्वरूपपर विचार किया जाता है। प्रभाकरका मत है.
१. 'उपायतत्त्वम्-ज्ञापकं कारकं चेति द्विविधम् । तत्र ज्ञापकं प्रकाशकमुपायतत्त्वं ज्ञानम् । कारकं तूपायतत्वमुद्योगदेवादि ।'
-अष्टस० टिप्प० पृ० २५६ । २. 'प्रमेय सिद्धिः प्रमाणाद्धि ।'
-सांख्यका० ३। ३. देखिए, शास्त्रदी० पृ० २०२ तथा मीमांसाश्लोक० पृ० १५२ ।
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