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प्रमाणप्रमेयकलिका प्रत्यक्षों को अविसंवादी तो मानते हैं, पर उन्हें वे व्यवसायात्मक स्वीकार नहीं करते । ग्रन्थकारने प्रस्तुत ग्रन्थमें उसकी भी मीमांसा की है और उन्हें व्यवसायात्मक सिद्ध किया है । प्रकरणके अन्तमें मीमांसक आदि उन दार्शनिकोंकी भी आलोचना की है जो ज्ञानको अ-स्वसंवेदी स्वीकार करते हैं तथा उनके द्वारा दिये गये 'स्वात्मनि क्रियाविरोध' दोषका परिहार करते हुए उसे उन्होंने स्वसंवेदी प्रसिद्ध किया है।
२. 'प्रमेयतत्त्व-परीक्षा' में सांख्योंके सामान्यका, बौद्धोंके विशेषका, वैशेषिकोंके परस्परनिरपेक्ष सामान्य-विशेषोभयका और वेदान्तियोंके परमब्रह्मका सविस्तर परीक्षण करके सापेक्ष सामान्य-विशेषोभय तत्त्वको प्रमाणका विषय-प्रमेय सिद्ध किया गया है। बौद्ध तत्त्वको ‘सकल-विकल्पवाग्गोचरातीत' कहकर उसे केवल निर्विकल्पक प्रत्यक्षगम्य प्रतिपादन करते हैं। नरेन्द्रसेनने बौद्धोंकी इस मान्यतापर भी विचार किया है और शब्द तथा अर्थमें वास्तविक वाच्य-वाचक सम्बन्ध एवं सहज योग्यताके होनेका निर्देश करते हुए तत्त्वको निश्चयात्मक ज्ञानका विषय युक्तिपूर्वक सिद्ध किया है। साथ ही समन्तभद्रके 'युक्त्यनुशासन' को 'तत्त्वं विशुद्धम्' इत्यादि कारिकाको उद्धृत करके उससे उसे प्रमाणित किया है।
इस तरह यह प्रमाणप्रमेयकलिकाका बाह्य विषय-परिचय है। अब उसका आभ्यन्तर विषय-परिचय भी प्रस्तुत किया जाता है। (ङ) आभ्यन्तर विषय-परिचय : १. मङ्गलाचरण : _ ग्रन्थके आरम्भमें मङ्गल करना प्राचीन भारतीय आस्तिक परम्परा है । उसके अनेक प्रयोजन और हेतु माने गये हैं । वे ये हैं :
१. निर्विघ्न शास्त्र-परिसमाप्ति, २. शिष्टाचार-परिपालन, ३. नास्तिकता-परिहार, ४. कृतज्ञता-प्रकाशन और ५. शिष्य-शिक्षा ।
१. 'तच्चतुर्विधम्'-न्यायबिन्दु पृष्ट १२ ।
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