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प्रमाणप्रमेयकलिका उपाध्येजीने मुझे माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालाके लिए उक्त प्रमाणप्रमेयकलिका के सम्पादनकी प्रेरणा की। फलतः वह अब इस ग्रन्थमालासे प्रकाशित हो रही है। प्रति-परिचय:
हम ऊपर उल्लेख कर आये हैं कि भारम्भमें हमें आरा-भवनको ही एकमात्र प्रति प्राप्त हुई थी। इसके बाद धर्मपुरा, दिल्लीके नया मन्दिर स्थित शास्त्र-भण्डारसे भी इसकी एक प्रति और मिल गयी । यह प्रति आरा-प्रतिको मातृ-प्रति है-इसीपरसे उसकी प्रतिलिपि हुई है और आरा-प्रतिसे लगभग सवा-सौ वर्ष पुरानी है। ग्रन्थके सम्पादन में हमने इन दोनों प्रतियोंका उपयोग किया है । उनका परिचय इस प्रकार है :
१. द प्रति-यह दि० जैन नया मन्दिर, धर्मपुरा, दिल्लीके शास्त्रभण्डारकी प्रति है। इसकी देहली सूचक 'द' संज्ञा है। इसमें कापीनुमा उतने ही लम्बे और उतने ही चौड़े कुल १३ पत्र हैं। प्रत्येक पत्रके एकएक पृष्ठमें १८, १८ पंक्तियाँ और एक-एक पंक्तिमें प्रायः २४,२४ अक्षर हैं । अन्तिम पत्रके द्वितीय पृष्ठमें केवल ११ पंक्तियां हैं। यह प्रति पुष्ट तथा अच्छी दशामें है और उसकी लिखावट स्वच्छ एवं साफ है । प्रतिलेखनका समय 'संवत् १८७१' अन्तमें दिया हुआ है, जिससे यह प्रति लगभग १५० वर्ष पुरानो स्पष्ट जान पड़ती है । यह बा० पन्नालालजी अग्रवाल दिल्लीकी कृपासे प्राप्त हुई।
२. आ प्रति-यह जैन सिद्धान्त भवन आराकी प्रति है। इसकी आरा-बोधक 'या' संज्ञा रखी है । आरम्भमें हमें यही प्रति मिली थी। इसमें पत्र-संख्या १० है । प्रत्येक पत्रमें उसके प्रथम तथा द्वितीय पृष्ठमें १२,१२ पंक्तियां हैं। पर प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर-संख्या सम नहीं है । किसी में ४८, ४९ ५०, किसी में ५१, और किसी में ५२, ५४, अक्षर है। लम्बाई १३।। इंच तथा चौड़ाई ६।। इंच है। ऊपर कहा जा चुका है कि
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