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सम्पादकीय
प्रस्तुत ग्रन्थ और उसका सम्पादन :
अक्तूबर सन् १९४४ में कलकत्ता में वीरशासन- महोत्सव मनाया गया था । इसका आयोजन वोरसेवामन्दिर, सरसावा ( सहारनपुर ) की ओरसे उसके अध्यक्ष बा० छोटेलालजी जैन कलकत्ताके प्रयत्नोंसे हुआ था । उस समय हम इसी संस्थामें शोध कार्य करते थे और इसलिए हमें भी उसमें सम्मिलित होनेका अवसर मिला था । वहाँसे लौटते समय संस्थाके संस्थापक आचार्य पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तार के साथ एक दिनको आरा रुक गये थे । बहुत दिनसे मेरी इच्छा बहाँको सुप्रसिद्ध साहित्यिक संस्था — जैन सिद्धान्त भवनको देखनेकी बनी हुई थी । भवनके विशाल ग्रन्थ भण्डारको देखते समय हमें उसमें जैन न्याय - शास्त्रकी कई अप्रकाशित रचनाएँ दृष्टिगोचर हुईं । उनमें से कुछ रचनाएँ मैं सम्पादनके लिए अपने साथ लेता आया । दो-तीन ग्रन्थोंकी पाण्डुलिपियाँ भी मैने उसी समय कर ली थीं । पर उनमें से किसी के सम्पादनका अवसर उस समय अन्य प्रवृत्तियोंमें संलग्न रहने के कारण मुझे न मिल सका । प्रस्तुत प्रमाणप्रमेयकलिका उन्हीं पाण्डुलिपियोंमें से एक है और जिसका सम्पादन अब हो सका है ।
गत वर्ष सन् १९६० के जूनमें जब श्रद्धेय मुख्तार साहबके साथ अनेक विद्या प्रतिष्ठानोंके प्रतिष्ठाता एवं अभीक्ष्णज्ञानोपयोग में निरत पूज्य श्री मुनि समन्तभद्रजी महाराजके पाद - सान्निध्य में बाहुबली ( कोल्हापुर ) जानेका स्वर्णवसर प्राप्त हुआ, तो वहाँ प्रख्यात साहित्य-सेवी डा० ए. एन. उपाध्येसे भेंट हो गयी । साहित्यिक चर्चा करते समय
१. यह संस्था अब दरियागंज, देहलीमें आ गयी है । -सं०।
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