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प्रमाणप्रमेय कलिका
प्रस्तुत कृति :
अपने अभिमत दर्शनके सिद्धान्तोंकी विवेचना करना प्रत्येक दार्शनिक को अत्यावश्यक होता है । प्रमाण-परिशुद्धिके बिना स्वाभिमत दर्शन के तात्त्विक सिद्धान्तोंकी स्थापना असम्भव है, इत्यादि अभिप्रायसे ही जैनदार्शनिक श्रीनरेन्द्रसेनने 'प्रमाणप्रमेयकलिका' नामका यह लघुकाय प्रमाणग्रन्थ निर्मित किया है । विद्वान् ग्रन्थकारने इसमें अतिसंक्षेप में दर्शनशास्त्र के प्रधान विषय प्रमाण और प्रमेयतत्त्वकी युक्तिपूर्ण एवं विशद विवेचना की है । निःसन्देह श्रीनरेन्द्रसेनकी यह भारतीय दर्शनसाहित्यको अनुपम देन है । इसके प्रकाशनसे जैन दर्शन के प्राथमिक जैन तथा जैनेतर सभी अभ्यासियोंको बड़ा लाभ पहुँचेगा । मेरा विश्वास है कि यह ग्रन्थ पूर्व पक्ष के रूप में कथित इतर दार्शनिकोंके अभिमत प्रमाण- प्रमेयसिद्धान्तों और उत्तरपक्ष के रूप में प्रतिपादित जैन दर्शनके प्रमाणादि सिद्धान्तोंका ज्ञान कराने में भली-भाँति समर्थ है । यह जैनदर्शन के तत्त्वोंके जिज्ञासुओंके लिए ही नहीं, किन्तु इतर दार्शनिकोंके लिए भी उपादेय है ।
हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत - महाविद्यालय में जैनदर्शन के प्राध्यापक श्री दरबारीलाल जैन कोठियाने आधुनिक शैलीसे इसका योग्यता के साथ सम्पादन करके और अपनी वैदुष्यपूर्ण विस्तृत प्रस्तावना में इसके प्रतिपाद्य विषयोंपर ऐतिहासिक दृष्टि तथा विषयक्रमका अनुसरण करते हुए प्रकाश डालकर इसे और भी अधिक उपादेय बना दिया है । आशा है यह कलिका अपने ज्ञान-सौरभसे विद्वानोंके मन-मधुकरको मुग्ध करेगी ।
फाल्गुन कृष्णा १ वि. स. २०१८, १९-२-६२
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हीरावल्लभ शास्त्री अध्यक्ष, दर्शन - विभाग हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी
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