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प्राक्कथन
ऐक्य है । इन सभी दर्शनोंका एक मात्र उद्देश्य कर्मबन्धनके भोग में पड़े हुए जीवको उस बन्धन से मुक्त कराना और मोक्ष दिलाना है । इस उद्देश्यमें कोई अन्तर नहीं है, चाहे वह श्रौत दर्शन हो, चाहे अर्हतादि-मुनि, परम्परा प्राप्त दर्शन हो । यह दूसरी बात है कि भारतीय दार्शनिकोंका जीवके स्वरूप, धार्मिकाचरण, मोक्षस्वरूप, तत्त्वसंख्या, प्रमाणसंख्या आदिके विषय में परस्पर नितान्त मतभेद है । और इस मतभेदका कारण है आत्मा, पुनर्जन्म, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, बन्ध-मोक्षादि आत्मसम्बन्धी मान्यताओंकी अत्यन्त सूक्ष्मता और दुरूहता । ये सब हस्तामलकवत् प्रदर्शित नहीं किये जा सकते और न वे स्वबुद्धिजन्य तर्कसे भी जाने जा सकते हैं । ऐसे दुरूह एवं अचिन्त्य भावों ( वस्तुओं ) के बारे में महाभारत में कहा है कि जो अचिन्त्य तत्त्व हैं उनकी सिद्धि अल्पज्ञ अपने तर्कोंसे करनेका प्रयत्न न करें ।
भारतीय दर्शनों का प्रयोजन तस्वज्ञानप्राप्ति :
फिर भी दर्शनशास्त्र तत्त्वोंका ज्ञान कराने में साधन हैं । विभिन्न युक्तियाँ, विभिन्न तर्क और अनुमानादि प्रमाण उसमें प्रदर्शित किये जाते हैं और इन सबके आधारसे उनका हमें यथायोग्य ज्ञान होता ही है । उक्त सूक्ष्म तत्त्वोंका भी ज्ञान तत्त्वदर्शी, अनुभवी और परानुग्रही जीवन्मुक्त तत्त्वद्रष्टाओंके कल्याणकारी सदुपदेश तथा शास्त्रसे हो सकता है । शास्त्रों और तत्त्वज्ञोंके अनुभवोंमें भेद देखने में आने से कौन - सा शास्त्र, कौन-सा सम्प्रदाय, किस धर्म और किस तत्त्वज्ञानीको प्रमाण माना जाये, इसका निर्णय मनुष्य अपने प्राक्तनकर्मानुसार प्राप्त अदृष्ट, संस्कार, जन्म, वंश, विद्या, बुद्धि आदि उपकरणोंसे ही कर सकता है । ये उपकरण ही उसे किसी-न-किसी सम्प्रदाय के सिद्धान्तोंको माननेके लिए बाध्य किये रहते हैं । अभिप्राय यह
१. 'अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तर्केण योजयेत् ।'
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-- महाभा. भी. ५-१२ ।
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