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प्रमाणप्रमेयकलिका
वे चाहेंगे तो उनका फोटू भी उस ग्रन्थकी सभी प्रतियोंमें लगा दिया जायेगा। यदि सहायता देनेवाले महाशय चाहेंगे तो उनको इच्छानुसार कुछ प्रतियाँ, जिनको संख्या सहायताके मूल्यसे अधिक न होगी, मुफ्तमें वितरण करने के लिए दे दी जायेंगी।"
इस योजना, साहाय्य व साधन-सामग्रीके आधारपर ग्रन्थमालाका प्रथम पुष्प 'लघीयस्त्रयादि संग्रह' कार्तिक वदि २ संवत् १९७२ को प्रकाशित हुआ जिसकी पृष्ठ संख्या २०४ और मूल्य ।) ( छह आना ) रखा गया । . हम इन सब बातोंका विवरण यहाँ इसलिए दे रहे हैं कि जिससे पाठकोंको विदित हो जाये कि इस ग्रन्थमालाके कुशल सूत्रधार पं० नाथूरामजी प्रेमीने कितने अल्प साधनों-द्वारा इस महान कार्यको आरम्भ किया और ४६ ग्रन्थों व ग्रन्थ-संग्रहोंका प्रकाशन कर डाला । जब हम उक्त परिस्थितियोंका आजके वातावरण और गति-विधियोंसे मिलान करते हैं तो आकाश-पातालका अन्तर दिखायी देता है, और पं० नाथूरामजी प्रेमी जैसे विद्वान् और चतुर संयोजकके प्रति धन्य-धन्यका उच्चारण किये बिना नहीं रहा जाता। हमारा मस्तक श्रद्धासे झुक जाता है । आज न वे परिस्थितियाँ रहीं और न प्रेमीजी जैसे महापुरुष रहे। वे दिन चले गये "ते हि नो दिवसा गताः" । इस स्मृतिसे हमारे हृदय-पटलपर एक विषादकी रेखा उदित हुई है।
और हर्ष इस बातका है कि उक्त कुशल कर्णधारके साथ ही ग्रन्थमालाका अस्त नहीं हो पाया, जैसा कि प्रायः हुआ है। प्रेमीजीको अपने जोवन-कालमें ही इस ग्रन्थमालाके भविष्यको चिन्ता हो उठी थी, और उन्होंने अपनो यह चिन्ता हम दोनोंपर व्यक्त की। हमारे सौभाग्यसे हमें इधर अनेक वर्षोंसे प्रेमोजीका पितृतुल्य स्नेह प्राप्त था। साहित्यिक क्षेत्रमें हमें उनका मार्ग-निर्देश भी मिलता था और हम उनके विश्वास-भाजन भी बन सके थे। इसी कारण उनके साथ-साथ इस ग्रन्थमालाके कार्यकलापसे भी हमारा निकटतम सम्बन्ध हो गया था। हमने प्रेमीजीको
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